गुरुवार, 18 सितंबर 2014

मन के कोने





धुंधला रहे हैं किताबो में लिखे हर्फ 
कांप रहे हाथ कटोरी को थामते हुए 
लकीरे बना चुकी हैं अपना साम्राज्य 
पेशानी और आँखों के इर्द गिर्द 

यह उम्र दराज़ होना भी 
कितना दर्द देता हैं 
कभी कहा जाता हैं तुम आराम करो 
दुनिया दारी बहुत कर ली 
कभी कहा जाता हैं बहुत 
जी लिया अपने मन का
अब हमें भी जीने दो

उम्र के इस मोड़ पर
जरुरत भी होती हैं
इस गैर जरुरी देह की

हर रिश्ते में एक पारदर्शी
दीवार दिखती हैं
अपनी ही जाई ओउलाद
परायी दिखती हैं

घर की देख रेख में
घर को बनाने में
एक उम्र गुजार देने वाले
यह बूढ़े लोग
मोहताज हो जाते हैं
सिर्फ एक कोने के लिय
अपने मन के कोने के लिय ..................................... नीलिमा शर्मा




















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सोमवार, 1 सितंबर 2014

माँ तो माँ होती हैं

 उम्र के इस मोड़ पर 
 भरे पूरे परिवार  में 
 तीन मंजिले मकान में 
बीमारियों  से भरी 
 फिर भी चलती फिरती 
कितनी अकेली होती हैं ....

हँसती  हैं आज भी 
 ठहाका लागाकर 
 बात - बेबात पर 
 भीतर के दर्द को छिपाकर 
और अन्दर अन्दर 
कैसे आंसुओ को पीती हैं ...

 कुछ तड़पती हैं 
कभी बरसती हैं 
 नए ज़माने की रंगत को  
धुंधलाती आँखों से 
 बूढ़े पति के कमीज में 
जब बटन पिरोती हैं ..........

झुक गयी अपनी कमर हो  
ढीले पढ़े  पति के कंधो हो 
दवाइयों की खुराक से 
तीन  वक़्त का भोजन करती 
माँ    बेटी की सिसकिया सुन 
खुद को अन्दर तक मसोसती  हैं ...

घर में चाहे तीन कार हो 
और रहते हो पाँच पुरुष 
पैसे की रेल पेल हो 
या विलासिता के भीड़ 
 अमीर माँ अक्सर रिक्शा में 
अपना और पति का बोझ ढोती हैं ......

 मज़बूरी होकर बुदापे  में 
 खुद रोटी को तरसते हुए भी 
मुठ्ठी में पुराने  नोट लेकर 
 मोतिया बिन्द  वाली आँखों से 
 बेटी नाती के आने की 
हर पल बाट  जोहती हैं 

 माँ तो माँ होती हैं 
पर अपनी माँ कब 
सबकी माँ होती हैं 
बेटे भी पराये होकर 
करते  मर जाने की दुआ
उस पल बेटी भी   माँ संग 
 खून क आंसू रोती  हैं ..


सब कुछ होता हैं बच्चो का 
पर आज अभी सब करते हैं 
क्यों नही यह मरते हैं 
 माँ पैसे से अमीर भी होकर 
अंतिम दिनों मैं क्यों 
बच्चो के प्यार से गरीब होती हैं .


उम्र के इस मोड़ पर 
 भरे पूरे परिवार  में 
 तीन मंजिले मकान में 
बीमारियों  से भरी 
 फिर भी चलती फिरती 
कितनी अकेली होती हैं ....





आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु