गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

मेरा शहर आवाज़े लगा रहा

मुझे सुनाईदेती हैंआवाज़े
पहाड़ के उस पार की
घाटी में गूंजती सी
मखमली ऊन से हवा
फंदा-दर फंदा
साँस देती हुयी
आवाहन करती हैं
जीने की जदोजहद से निकलने का
.
सपने देखतीहूँ
मैंअक्सर आजकल
हरी वादियों के
घंटाघर कीबंद घडियो में
अचानक होते स्पंदन के
बाल मिठाई के
बंदटिक्की और
खिलती हुयी धूप के
कितना मुश्किल होता
विस्थापन
पहाड़ से कंकरीट के
जंगल में आकर रहना
एकसाथ पाकर अपनों को
अपने को ही खोदेना
चार माले के एक फ्लोर पर
पांच कमरों वाले घर में
मुझे यादआते
अपने २५० गमले
डेहलिया गुलदाउदी
टाइल्स वाले पक्के आंगन में
खिलती कच्ची धूप
दुधिया मक्का
उस पर सर्दी का रूमानी मौसम
हो ना हो कहीऐसा
मुझे
मेरा शहर आवाज़े लगा रहा हो
रुआंसा   सा 
उदास होकर....

आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

शनिवार, 5 दिसंबर 2015

सही वक़्त पे



कुछ कह देने से
बात बिगड़ जाएगी
चुप रहे शायद
बात सुधर जायेगी
बात बात की ही नही थी
उनके मूड की थी
उनकीमर्ज़ी हुयीतो
बिसर(विस्मरत) जायेगी
कितना मुश्किल होता
मौके तलाशना.
सही बात के
सही वक़्त पे
कहदेनेके.........
नीलिमाशर्मा
‪#‎निविया‬









आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

शनिवार, 28 नवंबर 2015

अर्थ पहचानती रही 
अनकहे शब्दों के 
दर्द की तासीर ही 
गर्म इतनी रही 
लहू ठंडा हो गया 
बिना दवा लिए हुए
शिद्दत ही इतनी गहरी थी
उसके इश्क़ की
मैं उसको अपना मानती रही
बिना बंधन के 
नीलिमा शर्मा 






आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सोमवार, 2 नवंबर 2015

जब मिलती हैं आहट किसी के आने की


खुशिया बिखर जाती हैं
गुलाबी गालो पर 
जब मिलती हैं 
आहट 
किसी के आने की 
उसका ( शायद ) 
अपना हो जाने की 

सपने जो देखे थे 
अंतर,मन में 
स्पंदन जो हुए थे
तन में
आ जाती हैं बेला
शर,माने की

अपने अपनों को
छोड़ देना
नए रिश्तो को
जोड़ लेना
प्रीत अपनी
लगने लगती हैं
अनजाने की

आँखों का शराबी हो जाना
खयालो में
खुद ही हाथ फेरनाअपने
बालो में
चाह होती हैं उसको
दिल की धरकन सुनाने की

खुशिया बिखर जाती हैं
गुलाबी गालो पर
जब मिलती हैं
आहट
किसी के आने की
उसका ( शायद )
अपना हो जाने की .....नीलिमा शर्मा















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

लड़की होना आसान नही होता


कैसे घूरता हैं वोह नुक्कड़ पर खड़ा लड़का
घर से स्कूल जाती नव्योवना को
नीली चुन्नी को देह पर लपेटे
छिपाने की कोशिश में
अपने अंग-प्रत्यंग को
अक्सर मिल जाती हैं उसकी नजर
उन घूरती नजरो से
और टूट जाता हैं
उसके साहस का पहाड़
और उसकी देह
लगा देती है दौड़
पञ्च मीटर की
सेकंड के पांच सोवे हिस्से में
उसके बाद घंटो लगते हैं
उसे सहेजने में
समेटने मेंअपनी बिखरी सांसो को
कल भी तो होगा न
नुक्कड़ पर खड़ा लड़का
और एक बार फिर .....
बिखरेगी उसकी साँसे
दौड़ लगाएगी उसकी कमजोर टाँगे
लड़की होना आसान नही होता ..............
~~~~~~~~~~~~~~~~























आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

मोहताज

धुंधला रहे हैं किताबो में लिखे हर्फ 
कांप रहे हाथ कटोरी को थामते हुए 
लकीरे बना चुकी हैं अपना साम्राज्य 
पेशानी और आँखों के इर्द गिर्द 

यह उम्र दराज़ होना भी 
कितना दर्द देता हैं 
कभी कहा जाता हैं तुम आराम करो 
दुनिया दारी बहुत कर ली 
कभी कहा जाता हैं बहुत 
जी लिया अपने मन का
अब हमें भी जीने दो

उम्र के इस मोड़ पर
जरुरत भी होती हैं
इस गैर जरुरी देह की

हर रिश्ते में एक पारदर्शी
दीवार दिखती हैं
अपनी ही जाई ओउलाद
परायी दिखती हैं

घर की देख रेख में
घर को बनाने में
एक उम्र गुजार देने वाले
यह बूढ़े लोग
मोहताज हो जाते हैं
सिर्फ एक कोने के लिय
अपने मन के कोने के लिय ..................................... नीलिमा शर्मा








आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

मढ़ीयो के जलते दिवे

उम्र  कब की  बरस कर खामोश  हो गयी 
 आँखे भी मुस्कुराती  आखिर कब तलक  
  मन था जो भीग कर  मिटटी    गीली सा 
 नफासत से जीती  रही  लाल ओढ़नी  तब तलक  


  सफ़ेद  रंग था  सिरहाने बिछा हुआ सा 
 आसमा स्याह  भी नीला रहता कब तलक 
  उसकी चूड़ियाँ भी  खनकती  कैसे  अब 
  सिलवटो  सी  रहती  चादर     जब तलक 


 खुशनुमा  पलो को भर बुक्कल में  अपनी 
  सुनहरी  रेत सा झरने से बचाती  कब तलक 
 शिकवे भी करती तो कब और  किस'से करती   
 उसकी दुआ जब कभी पहुँचती नही रब तलक 


  मढ़ीयो  के जलते दिवे  के चारो तरफ 
   फेरे भी कितने लगाती और कब तलक 
 रूठ्या  माहि   भी जा बैठा    ऊँचे बनेरे 
     आवाज़  भी  नही  जाती  सिसकियो की सब   तलक 



आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सूना सूना सा


१.  आँगन कितना सूना सा हैं 
 हर घर का 

कभी यहाँ सुबह सवेरे चहकती थी 
चिड़ियाँ 
 और बाबा उनको दाना खिलाते थे 
 हु हु करते 

 और पायल की रुनझुन करती 
 बेटियाँ 
 आस पास किल्कारिया मारती थी 

 अब   आँगन में चिड़ियाँ नही आती 
दाना चुगने 

 न अब आँगन मैं किलकती हैं 
बेटियाँ 


 वज़ह कोई भी हो 
 उदास  तो आगन हैं ना 
सूना सूना सा .


















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 3 सितंबर 2015

अनचाहे ही अनजाने में








कुछ राते बहुत उदास कर जाती हैं
अनचाहे ही अनजाने में
और टूट जाते हैं नजरिये
इक दुसरे को देखने के
मलामत दिल में
मलिनता दिमाग में
नासमझी से नकारते
दुसरे के वजूद को
मुफ्त की नसीहत देते
भीतर तक महसूसते
अपने ही खोखलेपन को
धाराप्रवाह निर्गल प्रलाप से
बहुत कुछ समझते कुछ चेहरे
कुछ आईने टूट कर ही
चुभते हैं ,साबुत भी
कभी मुकम्मल तस्वीर न थे जो
कभी बेचारगी कभी मासूमियत
कभी मक्कारी का मुखोटा ओढ़े
यह आईने कई चेहरे लिय
उम्र भर तलाशते अपना वजूद
और इक छायाप्रति तक न पाकर
बिलबिला उठते अंधेरो में
जिस्म मिटटी का लेकिन
सोच कीचड़ की कर्म शुद्रिय
जिन्दगी भर फूटे घड़े से
अचानक भरकर बरसाती काई से
दिन को सुनहरा धुप सा पाकर
भूल जाते रात के अंधेरो को
बरसती सीलन भरी बरसातो को
और भयावह बनाते हैं
उनीदी रातो को
कुछ राते बहुत उदास कर जाती हैं
अनचाहे ही अनजाने में
और टूट जाते हैं नजरिये
इक दुसरे को देखने के
नीलिमा शर्मा निविया




















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

रविवार, 30 अगस्त 2015

माँ के आखिरी लफ्ज़

कान
 तरस  रहे हैं 
 सुन'ने को 
 कब आओगी ?
 छुट्टियां  हैं न बच्चो की 
   आजकल  गर्मी तो होने लगी हैं 
   फिर भी ,  मेरी आँखे  ठंडी करने आ जाओ 
 मन तरसता हैं मेरा 
 देखने को  बच्चो को 
 उनको तो मिलवा जाओ 
 आम  तरबूज़ और खरबूजे 
 सबके साथ अच्छे लगते हैं 
   घर में  रौनक आती हैं 
 जब बेटो  के बच्चो संग 
तेरे बच्चे हँसते हैं 
 कितना भी तू कॉन्टिनेंटल  मुगलई बना ले
 आज भी भाते बच्चो को मेरे हाथो के पराठे 
  अब ना मत कहना  नही सुन'नई मुझे  तेरी बातें
 माँ का घर हैं तेरा , पूरे से हक़ से आजाओ 
 ना जाने कितनी उम्र हैं बाकी 
 कुछ दिन मन   का   अपने कर जाओ 
 फिर घर होगा  धागे सा 
 ना तेरा न मेरा होगा 
 रिश्ते होंगे नाते होंगे 
 दीवार पर तस्वीर सा मेरा डेरा होगा 
 जितना धागा  होगा उतने रिश्ते कच्चे होंगे 
 बुलाकर सब बुलाये भी तो  माँ से नही  पराठे होंगे 
 कच्ची पक्की  बातें होंगी  सोँधपन सा गायब होगा 
 अब तो समझ ले बिटिया रानी 
 तब यह घर न तेरा होगा 
 अगली गर्मी रहूँ न रहूँ 
इक बार तो मार  ले फेरा 
फिर तो सब रिश्ते होंगे 
न घर होगा तेरा 
 न माँ रहेगी ना बाप रहेगा 
क्या पता बदल के रिश्ता 
कहदे  बेरुखी से 
तू कौन  मैं
कौन तेरा 





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सोमवार, 24 अगस्त 2015

मुश्किल रास्ता







कैसे घूरता हैं वोह नुक्कड़ पर खड़ा लड़का 
घर से स्कूल जाती नव्योवना को 
नीली चुन्नी को देह पर लपेटे 
छिपाने की कोशिश में 
अपने अंग-प्रत्यंग को 
अक्सर मिल जाती हैं उसकी नजर
उन घूरती नजरो से
और टूट जाता हैं
उसके साहस का पहाड़
और उसकी देह
लगा देती है दौड़
पञ्च मीटर की
सेकंड के पांच सोवे हिस्से में
उसके बाद घंटो लगते हैं
उसे सहेजने में
समेटने मेंअपनी बिखरी सांसो को
कल भी तो होगा न
नुक्कड़ पर खड़ा लड़का
और एक बार फिर .....
बिखरेगी उसकी साँसे
दौड़ लगाएगी उसकी कमजोर टाँगे
लड़की होना आसान नही होता .......





















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 30 जुलाई 2015

मौन लफ्ज़

बुत बन गयी
जिन्दा  ही
अपनों के आगे

गुनाह हो गये
उसके मौन  लफ्ज़
और गर्त हो गयी
जिन्दगी

ख़ामोशी
अब हुनर   जो नही रही
शौंक बन रही हैं
 नीलिमा शर्मा






आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 9 जुलाई 2015

इबारत पढना कभी मेरे दिल की

मुचड़े कागज पर लिखी इबारते
कभी पढ़ी हैं क्या
किसी ने ?
आंसुओ से सरोबार
हर लफ्ज़ होता हैं 
सीली सी महक
अन्दर तक भिगो देती हैं
साफ कागज पर लिखे शब्द
अक्सर
छुपा लेते हैं
अपने भीगे अहसास
झूठ और कृत्रिम
लबादा पहन कर
आज मेरे चारो तरफ बिखरे हैं
मुचड़े कागज
आप पढ़िए न
सफ़ेद कोरे कागज पर लिखे
मेरे कुछ लफ्ज़ ..............................
नीलिमा शर्मा Niviya















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 26 फ़रवरी 2015

जिन्दगी

जिन्दादिली से
जीना हैं
जिन्दगी को
जो मिलती हैं
ख्वाब सी 
खुशबू
अभी तलक
उस् में
अहसास की
उम्र हैं कि
महक रही हैं
नफासत से
जिसे भूल गयी
जिन्दगी की किताब में
रखकर
महसूस हो रही हैं
गुलाब के इत्र सी
फिजाओं में
मौसम में आते बदलाव सी
नीलिमा शर्मा निविया



आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

बुधवार, 25 फ़रवरी 2015

शहर

 हर
 शहर  की अप नी खुशबू   होती हैं
 कोई शहर मन को उदास कर देता  हैं 
 कोई उदास  मन को  सुक़ून  देता   हैँ 
 
 हर शहर की  अपनी मिटटी  होतीं  हैँ 
 कोई मिटटी  बंजर जमीन सी सिसकती हैं 
 कोई मिटटी  लहलहाती  हैं  फूलोँ की  खुश्बु  से 

 हर शहर का  अपना  सँगीत होता  हैं 
 कोई सरगम  सा बजता हैं  कानो में 
 कोई गाडियों के हॉर्न सा चीखता हैं 


  हर शहर  का अपनी जिन्दगी होती हैं 
 कही  जिया जाता हैं हर लम्हा 
 कही दौड़ लगायी जाती लम्हे के लिय 


 हर शहर हसीन होता हैं एक कशिश लिय 
 कोई अपना शहर होता   हैं हसीन  सा 
 कोई अपनों का  शहर होता हैं कशिश लिय हुए 


 नीलिमा शर्मा  निविया 
आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

बुधवार, 11 फ़रवरी 2015

शादीशुदा प्रेम


तुम शादीशुदा मर्द भी कितने अजीब होते हो 
प्रेम अगर  हो जाए पत्नी से  तो
जमीन आसमान इक करते हो 
एकाधिकार तुम्हारा हैं इस दिल पर 
जानते हुए भी 
बार बार झांकते हो 
हर दरीचे की 
हलकी सी भी दरारों से
और नही छोड़ते
जरा भी गुंजाईश
ताका झांकी की
किसी और की
खाना कितना भी अच्छा हो
लफ्ज़ जुबान से नही
कभी आँखों की चमक से
तो कभी स्नेहिल स्पर्श से बयां करते हो
तुम शादीशुदा मर्द भी कितने अजीब होते हो
सज संवर कर जाए कही पत्नी
नीचे से ऊपर तक निगेहबानी करते हो
खुद किसी से भी बतियाते रहो
बीबी को अपनी आँखों के घेरे में रखते हो
सबकी नजरे पढने की कोशिश में
अपने सरमाये में उसे महफूज़ रखते हो
कमर या कंधे पर रखा तुम्हारा हाथ
कितना मजबूत करता हैं मनो बल
जानते हुए भी
सरे आम दो कदम दूर से बात करते हो
तुम शादी शुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
उम्र के हर मुकाम पर
बदल जाते हैं तुम्हारे तौर तरीके
प्यार जताने के लहजे
आँखों के नीचे के काले घेरे
उड़ते सफ़ेद होते बाल
घुटने के दर्द से बदलती चाल
मोटी ड्राई होती शरीर

की खाल
फिर भी बीबी को गुलाब लगते हो
तुम शादीशुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
प्यार के इज़हार में मुफलिस से
लाखो की भीड़ में अपने अपने
बच्चो के भविष्य के जदोजहद करते
बीबी की नज़रे बचाकर माँ की मुट्ठी भरते
बहन की हर आह पर सिसकते
निशब्द जिन्दगी जीते हुए
अपने लिय न सोच कर
बीबी के झुमके लिय के साल भर
ऑफिस में फाके करते हो
तुम शादी शुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
प्यार मोहताज नही होता  तारीखों का 
 अक्सर भूल जाया करते हो 
 कभी गुस्ताखी  हो भी जाए  
तुम्हारी प्यारी जिन्दगी से 
मुआफ दिल से करते हो 
फाकाकशी के दिन हो  या  व्यस्त  तारीखे हो 
 प्रेम की स्वप्निल दुनिया की सैर करते हो 
 इक बार का समर्पण  
उम्र भर की जरुरत 
 अग्नि को साक्षी मान वादा करते हो 
तुम शादी शुदा मर्द भी कितना अजीब होते हो
प्यार का इज़हार लफ्जों से नही
अपने स्नेहिल स्पर्श और आँखों की चमक से करते हो ..................... नीलिमा शर्मा

























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मंगलवार, 27 जनवरी 2015

स्त्री !!

*****स्त्री *****

सिमटा होता हैं पूरा घर
फिर भी
और समेट कर रखने कीचाह
रखती हैं
स्त्री !!

.. बिखरा होता हैं
उसका वजूद
घर के कोने कोने में
और परायी लड़की होती हैं
स्त्री !!

जिन्दगी जितने भी
गमो में डुबो दे
भीगी आँखों से
हंस कर बोलती हैं
स्त्री !!

कही तन ढकने को नही
कही तन ढकना नही
उम्र कोई भी हो
सेक्स का सामान होती हैं
स्त्री !!

उम्र भर बुनती हैंजाल
अपने आशियाने का
एक मेहनतकश
मकड़ी सी होती हैं
स्त्री !!

धरती सी सह लेती हैं
प्रसव की पीड़ा को
अकेले ही भीतर
तब माँ होती हैं
स्त्री !!

जिन्दी मारी जाती हैं
कोख में , बेमौत ही
न बहन , न माँ , न बेटी
तब जहन में कहा होती हैं
स्त्री !!
नीलिमा शर्मा निविया



आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 1 जनवरी 2015

चल मन अब उठ

चल मन अब उठ !!! 
कब तक आंसू बहायेगा 
एक दिन कोई कहेगा 
धीरज रखो 
अगले दिन 
हुह!!
कहकर
आगे बढ़ जाएगा
आंसू तेरे
अपने हैं
दामन भी भीगा सा
चुन्नी के कोने से
चुपके से
पोंछ के
आँखे
समय भागता जायेगा
चल मन अब उठ !!!
कब तक आंसू बहायेगा

आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु