मंगलवार, 31 दिसंबर 2013

नववर्ष की पूर्व संध्या

दिसंबर तेरा जाना 
 जनवरी तेरा आना 
 कुछ नया नही  तो 
 फिर भी 
 हम इस तरह 
इसे मनाते हैं 
 जैसे दुखो  के
 लम्बे प्रवास  बाद 
 सुख लौट के आते हैं 
 भूल जाते हैं 
 इस उन्माद में 
 दुःख  सुख तो 
 हमारे ही कर्मो
 के उधार खाते हैं 

 हे इश्वर नववर्ष की पूर्व संध्या पर  आपसे यही कामना हैं कि  मानवता  संवेदनशीलता का ह्रास न हो  और कम से कम  हम इंसान अपने किसी अपने  की आँखों में आंसू  लाने  का कारण न बने ...बाकि सब कर्मो का लेखा जोखा .................. २०१४ का वर्ष आप सभी के लिय शुभ हो  




आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सोमवार, 30 दिसंबर 2013

दिसम्बर की आखिरी पूरी रात


दिसम्बर की आखिरी पूरी रात 
और पौष का महिना 
ठण्ड हैं कि थमती नही हैं 
कोहरे के आँचल में दुबकी 
मेरी यादे ठिठुर रही हैं 

जिन्दगी की पग्दंदियाँ
कब चौड़ी सडको पर खुली
और कब फिर से सकरी हुयी
यंत्रवत सी अनजाने में अनचाहे ही

कितनी बार रुदन फूटे
जब जब अपने छूटे
रुदाली सी अंखियाँ बरसी
तस्वीरो से मिलकर उनकी कई बार


कितनी मुस्कान बिखरी लबो पर
कितनी बार खिलखिलाए खुलकर
अपने बरसो बाद मिले तो
छल छल नीर बहा अँखियाँ से


तेरा (१३)साल बीत चला हैं
सब कुछ अर्पण करके तुझको
अब सबकुछ मेरा होगा
खुद को जगा के भीतर मुझको

नए सपनो की जोत जली हैं
मन की मुरझाई कली खिली हैं
नववर्ष की प्रतीक्षित नूतन बेला में
जाते दिसंबर को आखिरी सलाम मेरा



.......नीलिमा शर्मा निविया ....






















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सोमवार, 16 दिसंबर 2013

व्यर्थ गया उसका बलिदान








व्यर्थ गया उसका बलिदान
आज भी लुट रही अस्मते 
आज भी हो रहे सामूहिक बलात्कार 
स्त्री कभी निर्जीव वस्तु थी 
जिसकी भावनाए शून्य थी 
आज स्त्री भोग हैं 
सामूहिक भोग

मोमबत्ती अब श्रधान्जली
का सामान नही
स्त्री /बच्चियों के देह
में प्रवेश करायी जाती हैं
एक पुरुष जो सचेत होता हैं
अपनी जवान बेटी को देख कर
दुसरे की बेटी पर लार टपकाता हैं


चाहे जितना शोर मचा लो
चाहे जितना आन्दोलन करलो
जब दिल से आवाज नही आएगी
पुरुष की पुरुषता हैवानियत ही ढायेगी

निर्भय तूने बलात्कार तो नही रोके
अपने बलिदान से
पर सचेत कर दिया हर स्त्री को
लड़ने को अपमान से

तुम जिस भी लोक में हो
वहां उस बलात्कारी पुरुष से कहना
तू फिर से जन्म ले इस धरती पर
और उसके यहाँ न हो बेटी या बहना


उसकी कलाई राखी को तरसे
उसकी गोद प्यार को
उसकी राते सूनी हो
उसकी सेज ओउरत को

ओउरत के नाम पर उसे
सिर्फ माँ नसीब हो
और रिश्ते से दुनिया में
वोह सबसे गरीब हो ................नीलिमा शर्मा निविया






















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

रविवार, 15 दिसंबर 2013

अपनी अपनी जिन्दगी


क्यों !!
आखिर क्यों पूछ लिया 
एक स्त्री का एकांत 
जिसका कभी अंत नही 
बचपन से बुढापे तक 

सिसकता बचपन
हुलसाती जवानी
कराहती साँझ
सिसकती उम्र की निशानी

हर पल स्व को मार
पर में खुश होती
पुरुष के अहम् को
अपने अस्तित्व पर ढोती


झूठे नकाब के पीछे
मुखोटे पहचानती
नियति के जहर को भी
अमृत मानती


अपने अपनों के
बीच परायी सी
साधनों की भरमार
तन मन की सताई सी


कितना सूना होता हैं
इनके मन का कोना
रिश्तो की भीड़
पर अपना कोई भी ना


यह जिन्दगी भी क्या हैं
एक नारी की
महज एक मृगतृष्णा

जहा हम कदम साए भी
अपनी माँ के जाए भी
जिए चले जाते हैं
अपनी अपनी जिन्दगी
अपनी .......
अपनी ............
जिन्दगी ................ नीलिमा शर्मा





आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

रविवार, 24 नवंबर 2013

सपने झूठे होते हैं सुबह के.........







माँ !! 
रात मैंने एक सपना देखा 
तुम हो !! आँगन में सोयी सी 
और पास तेरे एक सफ़ेद कपडे में बैठी 
औरत जोरो से हंस रही हैं बेहताशा 
और मैं गुस्से से देख रही हूँ उसकी और 
और कहना चाह रही हूँ जैसे 
चुप रहो ना ... माँ सो रही हैं 
पर तुम मुझे इशारे से कहती हो 
चुप रहने को 
और मैं कुढ़ रही हूँ 
तुम्हारे ही दिए गये 
अपने नीले दुप्पटे को 
बार बार उंगुली पर लपेट'ते हुए 
और अचानक मेरा रुदन और
तुम्हारी सिसकियाँ एकाकार हो जाती हैं 
और उसकी आवाज़ में कही दब जाती हैं 
उस सफ़ेद कपड़ो वाली की हंसी 
और मैं ...............
लिपट जाती हूँ तुमसे कसकर 
कभी ना अलग होने के लिय 
और अचानक आँख खुल जाती हैं मेरी 
भोर का सूरज लालिमा लिय 
आने को तत्पर आसमान में 
और मैं पसीने से तरबतर 
इस सर्दी में 
आँखों के कोरो से बहते आंसुओ के संग !!
माँ !! सुनो ना ...तुम ठीक हो ना 
प्लीज़ कह दो 
सपने झूठे होते हैं
सुबह के................नीलिमा शर्मा निविया
















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पाता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती दिखायी दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 21 नवंबर 2013

tum -hum





एक दिन
तुझ बिन


सुबह शाम 
तुम्हारा नाम


चाँद रात
तुम्हारी बात


जान मेरी
सदके तेरी

दिल बेक़रार
तेरा इंतज़ार



रोया दिल
मुझे मिल

कब मिलोगे
क्या कहोगे ..........नीलिमा शर्मा


.
.
...
..




















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

विवेक हीन पल

कभी कभी बेवज़ह 
खलबली सी मची रहती हैं 
भीतर 
और 
गुस्सा 
बिना कारन 
अपना अधिकार 
जमा लेता हैं गहरे तक 
अनचाहे ही 
जुबान से फिसलते हैं 
वोह लफ्ज़
जो दिल में नही होते
और हम
उम्र भर धोते हैं
उन लफ्जों का
बरपाया कहर

यह कहर सिर्फ
अपनों पर ही क्यों बरसता हैं
दिल सबका नर्म लहजे को तरसता हैं
शब्द जहर बुझे से आग लगाते हैं
हम कहना कुछ चाहते हैं
परन्तु कह कुछ जाते हैं

कमबख्त उलझने
सोच को कुंठित कर
गाँठ लगा देती हैं
और सडांध मच जाती हैं भीतर
कुछ ऐसी बातो की
जो भीतर भीतर
चिंगारी सी
जलती हैं
और भभक उठती हैं
आग बेमौके
और
जल जाता हैं उस में
वजूद सबका
किसी के होने का
किसी के क्यों न होने का

आक्रोश विद्रोह से
तमतमाया जीव
तब भूल जाता हैं
उम्र भर को
कि उम्र भर महसूस होगा
यह एक उम्र के छोटे से पल का
विवेकहीन होना
बस अपना आप खोना

.......................................

नीलिमा शर्मा

मंगलवार, 19 नवंबर 2013

उम्मीद

उमीद !!!
कम से कम
तुमसे !!
ऐसे नही थी
मुझे
तुमसे 
उम्मीद ही नही थी
फिर भी
ना जाने क्यों
एक आस
विश्वास की
तुमसे लगाये रहती हूँ
दोस्ती के मायने
तुम भूल जाओ
वादा था न
मेरा
उम्र भर
निभाने का
कम से कम
तुम्हारी
उम्मीद तो
पूरी होगी
................................ नीलिमा शर्मा

सोमवार, 18 नवंबर 2013

यादे !!!

कल मेरे छोटे भाई  समान मानव  शिवी मेहता  ने मुझे इनबॉक्स  कुछ लिखा  कि दीदी देखो कैसा लिखा  हम दोनों अक्सर इस तरह अपना लिखा एक दुसरे को दिखाते  रहते हैं
 फिर  क्या जुगलबंदी हुयी आपकी नजर पेश हैं ..............
~~

तुमने सुना तो होगा
जब चलती हैं तेज़ हवाएं
फड़फड़ा उठता है
सोया हुआ शजर
बासी से कुछ मुरझाये हुए से पत्ते
छोड़ देते हैं साथ
दिये कई तोड़ देते हैं दम
जब चलती हैं तेज़ हवाएं
बर्बाद हो जाता है सब कुछ
इक रोज़ इक ऐसे ही
तेज़ हवा में
बुझ गया था -
मेरा भी इक रिश्ता....!! मानव मेहता शिवी
~~~~~~~~~~~~~~~~
न तेज हवा चली थी /
न कोई तूफ़ान आया था /
न हमने  कोई आसमा सर पर उठाया था /
 हम जानते  थे ना /
हमारा रिश्ता नही पसंद आएगा /
हमारे घर के ठेकेदारों को /
जिनके लिय अपने वजूद  का होना लाजिमी था /
 हमारी कोमल भावनाओ से इतर /
और हम दोनों ने सिसक कर  /
भीतर भीतर चुपके से /
 तोड़ दिया था अपना सब कुछ /
बिना एक भी लफ्ज़ बोले /
मैंने तेरा पहना कुरता मुठी मैं दबा कर /
 तुमने मेरी लाल चुन्नी सितारों वाली /
जो आज भी सहेजी हैं दोनों ने /
अपने अपने कोने की अलमारी के /
भीतर वाले कोने में........... नीलिमा शर्मा निविया
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
मुझे याद तो नहीं शोना
पर जब से तुम गयी हो
लगभग हर रात
अपनी अलमारी खोल कर
देखता हूँ उस
लाल रंग के
सितारों वाले दुप्पट्टे को
जो तेरी इक आखरी सौगात
मेरे पास छोड़ गए थे तुम
तुम नहीं मगर तुम्हारा एहसास
आज भी उस दुप्पट्टे में
वाबस्ता है...
मैं आज भी इसमें लिपटी हुई
मेरी मोहब्बत को देखता हूँ...
मुझे याद तो नहीं शोना
पर जब से तुम गयी हो
ज़िन्दगी घुल सी गयी है लाल रंग में मेरी... Manav Shivi Mehtamanavsir.blogspot.in
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
 तुम्हारा वोह सफ़ेद कुरता
आज भी रखा हैं कोने में  अलमारी के
 जहाँ मैं सहेजती हूँ यादे अपनी
 और जब  अकेली होती हूँ न
 अपने इस कोहबर में , तो
 पहन कर वोह सफ़ेद कुरता
 महसूस करती हूँ
 तुम्हे अपने बहुत करीब
 तुम्हारी आखिरी सफ़ेद निशानी
 जो छीन कर ली थी मैंने तुमसे
उसमी वोह अहसास  भी जुड़े हैं
 तेरे - मेरे
 जो हमने जिए तो नही
 फिर भी कई बार महसूस जरुर किये हैं
    सुनो शोना
 अब मेरी जिन्दगी  पहले जैसे
  रंगीन नही रही
 शांत रहना सीख लिया मैंने
 तेरे कुरते के सफ़ेद रंग की तरह .................... नीलिमा  शर्मा


 कृपया बताये ......... हम   ने लफ्जों  से कैसे  रंग भरे हैं इस शब्द चित्र मैं ....................

गुरुवार, 14 नवंबर 2013

आंसू के चंद कतरे

जो  कहा नही जाता
लबो से
 उसे अक्सर रोया जाता हैं
दिल से
 और बहाया जाता हैं
आँखों से
 लफ्ज़ होते हैं
 हर बूँद में
 आंसू की
 और लोग अक्सर
 उनको छिपाते हैं
 सबसे
खासकर
अपने अपनों से
 क्युकी
 जिन्दगी के
 रहस्य
या तो लब
बयां करते हैं
 या फिर
 आंसू के चंद
कतरे  ..........नीलिमा शर्मा 

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

त्रिवेणी

तेरी फ़िक्र 
बिना किये 
तेरा जिक्र 


तेरी सोचे 
चुपचाप
दिल कटोचे


तेरा आना
बिनबताये
चले जाना


तेरी शान
बढ़ाये
मेरा मान

मेरे लब
तुझे पुकारे
अब और तब

सुरमयी शाम
इंतज़ार
निगोड़े काम


मैं तुम
उम्र भर
उदासी गुम





नीलिमा शर्मा

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

चीखे !!

चीखे !! चिल्लाहटे!!! रूदन !! कराहटे!! मोहताज़ नही किसी ध्वनि की हृदय के किसी अंदरूनी कोने में भी घर बना लेती हैं कभी चुपचाप !! दर्द वेदना पीड़ा हर बार बयां हो संभव नही चेतना भी छिपा लेती हैं इनको भीतर अपने हर बार कई बार
आँखे अक्सर वोह कहती हैं जो लब छिपा जाते हैं लब अक्सर वोह कहते हैं जो आँखे बहा ले जाती हैं

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

आज मैं चुप हूँ

आज मैं चुप हूँ 







  मैं चुप हूँ बाहर से 
पर भीतर 
ना जाने कितने 
वार्तालाप 
चलते हैं 

और मेरी रूह 
जख्मो से भरी 
रिसती हैं 
देर तलक 

ओ ढ लो मुझे 
तुम बनाकर 
और मैं लिपट जाऊ 
बुक्कल मार कर 

तेरा होना भी हैं 
पर तेरा कहलाना नही हैं 
भरम रखना हैं बस 
तेरे मेरे होने का 
मेरे तेरे होने का 

शब्द चुप हैं शोर मचाते हुए 
और भीतर कोलाहल हैं जज्बातों का 

और मैं गुम हूँ 
सोचते सोचते 
तेरे गालो की डिंपल याद करके 

और तुम .....

तेरी तुम जानो 
मेरी मैं ................. नीलिमा

मिटटी की गुडिया

न जाने क्यों 
मुझे सुनाई दे रही हैं सिसकियाँ 
एक
मिटटी की गुडिया की 
सबके सामने सजी सी रहती हैं एक आले में 
खूब सूरत शो पीस सी 
लेकिन कोई नही देख पता 
उसकी आँखों से बूँद बूँद 
गिरते आंसुओ को 
न पहचान पता हैं 
दुनिया के शोर में उसके रुदन को 
वोह गुडिया
जो कभी पसंदीदा खिलौना थी
किसी की हर वक़्त
आज आले मैं रखे उसे
ढूढ रहा हैं
नए खिलोने
बाजार में
गुडिया आज भी इंतज़ार में हैं
कि कभी याद आएगा उसको
वोह अतीत
वोह बचपन
वोह सच्चे खेल
क्युकी उसने सुना था
रिश्ते और अहसास
खिलौनो से भी जुड़ते हैं
पहले प्यार की तरह
पहला खिलोना भी
हमेशा याद रहता हैं .......नीलिमा 

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

तुझ में रब दिखता हैं यारा मैं क्या करू ???

लोग कहते हैं कि सुबह उठते ही करो प्रभू के दर्शन पर मैं जब भी खोलती हूँ अपनी आँखे मुंह अँधेरे तुम सामने दिख जाते हो बाल स्मित मुस्कान लिये बिखरे बाल लिए नींद में खोये से तुम्हारी घनी पलके तुम कभी कृष्ण कभी शिव का रूप लगते हो सजना! अब तुम ही कहो लोगो !!! मुझे किसी इश्वर की क्या जरुरत इनको जो देख लेती हूँ आँखे खुलते ही !!

एक जंग लगा पिन

एक जंग लगा पिन
 मुचड़े से कागज पर
 बिखरी हुयी चुडिया
आईने के सामने
मैली सी चादर
 बिछी बिस्तर पर
 यह बिखरे कपडे
 उसके पैताने

 एक भावात्मक
प्रतीकात्मक
 लिय  बेतरतीब फैली
 यह  चूड़ियाँ, चादर
 कपडे और झूठे बर्तन
बयानी करती हैं
तुम्हारे अनकहे अहसासों की

 तुम आजकल तनहा हो
 तन से भी मन से भी
 भावो और ख्यालो से भी


 तुम्हारे पास नही हैं आजकल
 तुम्हारी प्रिय "निविया "
 तुम्हारे दिल में उसकी यादो ने
इतना गहरा असर छोड़ा हैं
 और तुमने  
उसकी उतारी चूड़ियों को
 उसकी बिछाई चादर को
 उसके लिखे कागज को
 उसकी सब यादो को
बस बस ऐसे ही रख छोड़ा हैं
...............
 नीलिमा शर्मा  निविया 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

श्रृंगार किये दुल्हन

श्रृंगार किये 
नयी नवेली सी दुल्हन 
शर्माते हुए 
लजाते हुए 
कपकपांते हुए 
रखती हैं 
साजन की दहलीज पर
अपना पहला कदम
रस्मो की एक
लम्बी श्रृंखला
रिवाजों की डोर
रिश्तो की भीड़
एक अलसाई सी महक
मन की खामोश चहक
चमकते गहनों का बोझ
नए नए कपड़ो की मौज
फिर भी
अजनबियत का अहसास
फिर भी कुछ
सौंधा सा माहौल
कुछ कुछ अपना सा
ढूढती निघाहे
किसी अपने को
अपनों सी भीड़ में
कनखियों से
मिलन के इंतज़ार में
नयी नवेली सी

श्रृंगार किये
दुल्हन ......................... नीलिमा


Kasturi (कस्तूरी) sanjha kavy sangrah se meri likhi nazm

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

गिरह , गांठे

गिरह , गांठे 
कभी मजबूत बनाती हैं 
रिश्तो को 
जब बंध जाती हैं मध्य 

पर यही गांठे 
कमजोर बनाती हैं कभी
रिश्तो को
जब बंध जाती हैं मध्य

फर्क लफ्जों का नही
महसूस करने का होता हैं
गांठो को
उनकी गिरहो को
उनके होने को
उनकी वजूद को

सच इतना कि
वक़्त रहते
हमें देखते रहना चाहिए
रिश्तो को

उनके बीच की गांठे
प्यार तोड़ रही हैं
या
जोड़ रही हैं
कोई सिरा कमजोर तो नही


गांठे दो सिरों का मेल भी
मेल में अवरोध भी ................................नीलिमा शर्मा

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

हिंदी अनुवाद सहित पंजाबी नज़्म





इक याद तेरी ने वर्का फोल्या
इक याद मेरी ने  स्याही लिती
 कुछ कुछ यादा तेरिया सी
मिठियां मीठियाँ
 कुछ यादां मेरियां सी
 सौंधी जी अलसाई सी


 वे  रान्झेया
 इक बारी वेल्ली रखी
 तेरे मेरे  विचोड़े ने
 अथरू   भर भर  के
 अँखियाँ इच
 लिखे ने
 पोथियाँ हजार
 

 अज हिज्र ने
 तेरे मेनू
  कमली   कित्ता

 आज चाड दितियाना ने खड्डी ते
सारियां  यादा
 बन'न लई
 एक दुशाला इश्क इच  प्हीजे हुर्फा नाल .............

 लोड मेनू  तेरी  निग दी ...नीलिमा
~~~~~~~~~~
 हिंदी अनुवाद

 एक याद तेरी ने पन्ना खोला
 एक याद मेरी ने स्याही ली
 कुछ यादे तेरी थी
 मीठी मीठी
 कुछ यादे मेरी थी
 सौंधी सी ,अलसाई सी

 ओ राँझा (प्रिय)
 एक अलमारी खाली  रखना
 तेरे मेरे विरह ने
आंसू भर भर कर
आँखों में
 लिखी हैं
 किताबे हजार


 तेरे विरह ने
 मुझे
 पागल किया हैं


 आज मैंने खड्डी ( कपडा बन'ने की मशीन ) पर
 चढा दी हैं सारी यादे
 बन'ने के लिय
 प्यार से भीगे शब्दों  का
शाल

 मुझे जरुरत हैं
 तेरे प्यार की गर्मी की ...................... नीलिमा 

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013



Kash !!!
yeh barissh
kam na ho
Kabhi

Barasti rahe yu hi
boond -dar-boond
Mere Tan Man ko
Bhigoti si


Tum Suraj sa
dhahkate ho
Mai badal ban
jati hu baras



meri purnam aankhe
tumko
majboor kar jati hai tab

aksar
chipne ko
baadlo ki aot mei

Mujhe RImjhim pasand hai
or Apne kamre ki khuli khirki
Or baarish mai bheegte hue "Tum

"काश
यह बारिश
कम
न हो
बरसती रहे यु
बूँद दर बूँद
मेरे तन -मन को
भिगोती सी

तुम सूरज सा
दहकते हो
में बादल सी
बरस जाती हु
मेरी नाम आँखे
तुमको मजबूर
कर जाती है तब
अक्सर
छिपने को
बादलो की परतो में
मुझे रिमझिम पसंद है
और खुली खिरकी
अपने कमरे की ....................
और बारिश में भीगते हुए तुम
 —

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

यूं ही चलते चलते

बेवज़ह एक नज्म बन जाती हैं .
जब जब तुम मुझसे मुखातिब होते हो 
लफ्ज़ भी गुनगुनाने लगते हैं संगीत 
जब जब तुम मुझे अपनी कह जाते हो
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जैसे दिया हो किसी पीर ने रूहानी तागा ऐसे 
या मिला हो प्रसाद में एक चमकता सिक्का जैसे 
या गिरजे में जलती मोमबत्ती की सी लो सी 
माँ तेरा वजूदइस कदर मुझ में घुल गया कैसे
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कुछ लोग चुप हैं .....शोर मचाकर 

कुछ लोग शोर मचा रहे हैं ...चुप रहकर 

बगावत जारी हैं .ताकि सनद रहे ................
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कुछ भी नही !!!

फिर भी 

बहुत कुछ !!!

भीतर भीतर चलता हैं ............. 


अनचाहे ही ...अनजाने ही ...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
उम्र भर 
उम्र की चाह की 
पल भर में 
पल की उम्र फ़ना 
अब उम्र लघु 
या पल दीर्घ 
पसोपेश में 
आदमी !!!!! neelima
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

यतार्थ /पलायन

तुम्हारी इन दो आँखों में
झाँकने की हिम्मत
कभी नही हुए थी मेरी
ओर, आज
अब वही मैं हूँ
झांक रही हु .
देख रही हूँ इनमे
अपने दो अस्तित्व
यतार्थ और पलायन के बीच
आंदोलित
अपने ही दो अस्तित्व
एक जो जान रहा है
जीवन के सत्यो को
और दूसरा जो भाग रहा है
इसकी दुश्वारियो से
मैं निर्निमेष तुमको
तकती हु कुछ पल तक
और फिर झुका लेती हु अपनी पलके
तब मुझे ज्ञान होता है
अपने एक नए अस्तित्व का
जो मेरा व्याक्तितव है गोया
जो यतार्थ और पलायन के
मध्य दोलन कर रहा है
मैं हौले से
पलके उठाकर देखती हु
मेरा यतार्थ अस्तित्व
स्मित मुस्कान से
सोचता है तब
जीवन एक संघर्ष का नाम हैं
उठ! सामना कर!!
तू कमजोर नही !!
पर तभी
पलायन अस्तित्व फुफकारता है
तुम इन सब के लिए नही बनी
जिजीवषा और मृग तृष्णा की लढाई
तुम क्यों लड़ो

यतार्थ और पलायन की इस चक्की में
पिसती हुए मैं
सोच रही हूँ अक्सर विमूढ़ सी
किसके हवाले करू खुद को
यतार्थ मुझे अपनी और खिंच रहा है
पलायन मुझे अपनी और
मैं किमकर्ताव्य विमूढ़ सी
सोचो में गम हूँ
कि अब क्या हो / करूँ
तभी तुम अपनी दोनों आँखे बंद कर लेते हो
और विलीन हो जाते है
मेरे दोनों ही अस्तित्व
तब रह जाता है
यह मेरा अधुरा सा व्यक्तित्व
और छूट जाता है जहन पर एक बोझ
यतार्थ और पलायन का बोझ .............
इस उम्र का बोझ
उम्र भर का बोझ
ताउम्र का बोझ ............ नीलिमा शर्मा


साँझा काव्यसंग्रह " एक साँस मेरी " से

कहो तुम

कहो तुम 
जो अनकहा रह गया हैं 
मैं सुन रही हूँ 
वोह सब भी 
जो तुम कहकर नही 
कह पा रहे हो 
इतना ही तो फर्क हैं 
तुझ में ,मुझ में 
तुझे लफ्जों की जरुरत 
मुझे पढने के लिय 
मुझे सिर्फ तेरे सानिध्य की

सुनो
करीब से गुजर कर देखो
कल्पनाओ में भी
वोह सब भी पढ़ लूंगी
जो अभी सोचो
की परिधि में
आने को आतुर
होंगे भाव तुम्हारे ..................................... नीलिमा शर्मा Nivia

रविवार, 22 सितंबर 2013

बिखरते अस्तित्व


तुम्हारी इन दो आँखों मैं
देखने की हिम्मत कभी नही हुयी थी
और आज देख रहा हूँ इनमें
अपने दो अस्तित्व
यथार्थ और पलायन के मध्य 
बिखरते अस्तित्व
एक जो भाग रहा हैं जीवन के सत्यो से
दूसरा जो द्दकेल रहा हैं
जीवन की जिजीविषा से झूझने को
मैं कमजोर .कायर नही
फिर भी ढूढ़ रहा हूँ
अपने होने न होने के सवाल
के हर मुमकिन जवाब को
तुम मेरी हो शोना
अरमानो का काजल लगाकर
नैनो मों सपने भर
उतर आई थी आँगन मेरे
विस्मित सी
अचंभित सी
अज्ञात में ज्ञात तलाशती
परायो में अपने
रुनझुन पायल
छनकती चूडिया
लहकती चाल
बहकती ताल
सोने के दिन थे चादी की राते
करती थी तुम कितना
खिल खिलते हुए अनगिनत
ख़तम न हो सकने वाली बाते
आज चुप हैं वोह नशीली रुनझुन
मैं बोलता हूँ तुम सुन लेने का अभिनय करती सी
आँखों मैं एक सवाल लिय देखती हो मुझे
हुक सी उठ जाती हैं मेरे हृदय में
क्या मैं कायर हूँ
जो तुम्हारी निगाहों के खामोश सवालों का जवाब नही
मेरे पास तुझे देने को अब ख्वाब नही
अक्सर गम रहता हूँ तेरी आँखों की रौशनी मैं
नही समझ पता तेरा एक भी प्रश्न
यह आँखे सामने होती हैं सौ सौ सवाल करती
और जब मैं तलाशने लगता हूँउन में
अपने होने न होने का वजूद
तुम अपनी आँखे बंद कर लेती हो
और ढलका देती हूँ चुपके से
सबसे छिपाकर मोती
और गम हो जाता मेरा सम्पूरण अस्तित्व अँधेरे में
मेरी शोना ...
सुनो न ..
एक बार तो मुझे आँखे भर देखने दो
इन झील सी आँखों मैं
मुझे डूब कर इन में
पार उतरना हैं .................नीलिमा शर्मा

शनिवार, 21 सितंबर 2013

तन्हाई की उम्र

तुम आओगे
तुम नही आओगे
इस उहापोह में सुबह गुजर रही हैं
बार बार हाथ
बढ़ता हैं फ़ोन की तरफ
पूछ लू 
क्या बनाना हैं आज
छोले या पनीर पसंदा
फिर रूक जाती हूँ
अगर तुमने कह दिया
नही इस बार नही आना होगा
तो शायद
खिचड़ी भी न बना पाऊ
सोचती ही रह जाती हूँ
अक्सर
तुम्हारी यादो में खोकर
और रसोई सूनी रह जाती हैं
आजका दिन तो
उत्सव सरीखा होता हैं
मेरे और बेटे के लिय
तुम्हारा आना
और बढ़िया खाना
..
सुनो साजन
बना ही लेती हूँ
पसंदा पनीर
साथ में खीर
कम से कम
तुम्हारी उम्मीद में
कुछ वक़्त तो गुजरेगा
शाम तक
और अगर तुमने अभी कह दिया
नही आना हो पा रहा हैं
सॉरी
मेरी
तन्हाई की उम्र और बढ़ जायेगी
और सब्जी कढ़ाई में यूँ ही जल जाएगी .........नीलिमा शर्मा

रविवार, 15 सितंबर 2013

अब कौन लिखेगा वक़्त के होंठो पर प्रेम गीत

अभी फ़ेसबुक पर आई तो एक दिल दहला देने वाली ख़बर दिखी यहाँ - Deepak Arora जी नहीं रहे. 
ओह ...बहुत ही दुखद है ...विशवास नहीं हो रहा 


कहा था तुमने एक बार
जिन्दगीगुजर रही हैं
काले
सन्नाटो से  

और मैं जान ना चाहती थी
यह काले सन्नाटे क्या होते हैं भला 
क्या सन्नाटो के भी कोई रंग होते हैं ?
तुमने कहा था ....................हाँ !!

 सन्नाटे भी रंग लिय होते हैं
जिस दिन रंगीन सन्नाटे होते हैं मेरे इर्द गिर्द
उस दिन जन्म लेती हैं एक प्रेम कविता
कभी विरह से डूबी तो तो कभी प्रेम से परिपूर्ण
पर आजकल मेरे इर्द गिर्द स्याह सन्नाटे हैं
और मेरी कविता गुम हैं कही
और मैं इतना खुदगर्ज़ हूँ
कविता को कभी आवाज़ नही लगाता
उसे आना होगा तो खुद आएगी
आज कल सुनता हूँ बटालवी को
बिरहा का सुलतान
मुझे बुलाता हैं अपने पास
उसके पास जाकर  पूछना हैं 

उसकी दिलकश
आवाज़ में छिपे दर्द को

 उसके लफ्जों में बसी 
उदासी को
शायद उसने  भी मेरी तरह
सन्नाटो में बितायी होगी जिन्दगी
स्याह सन्नाटो में। …………

सुनो  मित्र !! तुम  देखना
इतिहास में
अच्छे कवि छोटी उम्र के होते है। …………………….

 और मेरे मित्र कहते हैं मैं अच्छा लिखता  हूँ 
``````````````````````````````````````````````
 दीपक अरोरा  जी ................................
और आपने  अपनी जिन्दगी के दिन गिने ही क्यों। ……


हमेशा याद रहेंगे आप अपनी कविताओ के लिय
अपनी दोस्ती के लिय



भावभीनी श्रद्धाँजलि..ईश्वर आपकी आत्मा को शान्ति दे और परिवार को इस दुःख से उबरने की सामर्थ्य दें !!!

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

हिंदी माँ/अग्रेजी बहू

हिंदी जो थी कभी हिन्द के माथे की बिंदी आज रोती हैं अपने को असहाय पाकर सिसकती हैं अपनी दुर्दशा पर बड़े बड़े सोफों पर बैठ कर बड़े दफ्तरों में आज शर्मनाक सा लगता हैं सबको हिंदी बोलना सबके सामने पर घर आकर सुकून हिंदी के अखबार में पाते हैं आज हिंदी का हाल उसी बूढ़ी माँ सा जो मालिकन है घर की कागजात पर पर हुकूमत अब अंग्रेजी बहु की चलती हैं 
और नामुराद सी यह बोली गिटर पिटर कर पिज़्ज़ा सी घर घर बनती हैं पेट ख़राब हो जाने पर 
माँ की रसोई के में एक छोटे से कुकर में तब हिंदी की खिचड़ी पकती हैं


कुछ भी हो
जो सुकून माँ के साथ
बीबी कितनी भी लजीज
नही शांति उसके पास


गुरुवार, 12 सितंबर 2013

नीलिमा होती हैं न हैरानियाँ!!!

मायने लफ्जों के जब बेमानियाँ
किस्से भी होते हैं तब बेमानियाँ 

उम्र प्यार और धोखा 
और तब होती हैं नादानियां!!

रूठ'ना मानना और सताना ,
अच्छी लगती हैं शैतानियाँ!!

गुलाबी इतर से भीगे प्रेम पत्र 
, अच्छी लगती हैं निशानिया!!

नजरे इशारे और छुवन
बेटिया जल्दी होती हैं सयानियाँ!!

ज़िल्लत ,ताने ,बदनामी
तब भी घर से भागती दीवानियाँ!!

सच झूठ और गप्पे ,
मिलकर बनाती हैं कहानिया!!

चुगली गाली और बेईज्ज़ती ,
तब रोती हैं जनानिया!!

दंगे , कतल और आगजनी ,
बर्बाद होती जिन्दगानिया !!

क्रोध , आवेश और हिंसा .
फिर तब मरती हैं जवानियाँ !!

लिखे लफ्ज़ पर कोरे कागज ,
नीलिमा होती हैं न हैरानियाँ!!!

सोमवार, 9 सितंबर 2013

स्वीकारोक्ति एक पुरुष की

मेरे नाम से मुझे जब पुकारती हैं एक लड़की और तहाती हैं मेरे धुले हुए कपडे झुन्झुलाता हुआ मैं झिड़क देता हूँ अक्सर और तब भी खामोश रहती हैं बिना किसी उम्मीद के प्यार में होती हैं न वोह !!! और मैं उदास सा करवट बदलता हुआ याद करता हूँ सिर्फ एक जिस्म जिस्म जो दिन रात \ मेरे इर्द गिर्द घूमता हैं एक निश्चित परिधि में बिना अपना ख्याल किये!!!! यह लडकियां कितनी कमजर्फ होती हैं कमबख्त होती हैं कितना भी दुत्कारो और फिर पुचकारो सावन की झड़ी सी बरसती रहती हैं बस एक पल के सानिध्य के लिय माँ कहती थी !!! लडकिया ख्याल भर नही होती एक उम्र भर होती हैं और इस एक उम्र में जी लेती हैं आने वाली सात उमरो को सिर्फ सात फेरो का खेल खेलकर पैरो के तले पर गुदगुदी से खिलकर हसने वाली लड़की रो देती हैं जरा सी बात अनसुनी करने पर और अक्सर लडकिया भूल जाती हैं बड़ी बड़ी बाते और सीने से लगा छोटी छोटी बाते घुलती रहती हैं / शक्कर सी राइ का पहाड़ बना रोती हैं/ लिपट कर पहाड़ जैसे मुसीबतों से पार पा जाती हैं /अक्सर चुपचाप सी दम्भी अहंकारी आजाद होने का नाटक करती अक्सर माँ सी पिघल जाती हैं ओर एक जायज माँ बन जाने को क्या क्या नही कर जाती लडकिया और बिस्तर पर पढ़ी सलवटो सी सहम जाती हैं पत्थर  
जो नही होती दिखने में
मोम की तरह सी
फिर भी बनकर
सख्त सी
 उम्र भर निभाती हैं
रिश्ता
 रिसता हुआ भी
 यह कमबख्त लडकिया
.Neelima Sharrma