गुरुवार, 31 अक्तूबर 2013

त्रिवेणी

तेरी फ़िक्र 
बिना किये 
तेरा जिक्र 


तेरी सोचे 
चुपचाप
दिल कटोचे


तेरा आना
बिनबताये
चले जाना


तेरी शान
बढ़ाये
मेरा मान

मेरे लब
तुझे पुकारे
अब और तब

सुरमयी शाम
इंतज़ार
निगोड़े काम


मैं तुम
उम्र भर
उदासी गुम





नीलिमा शर्मा

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

चीखे !!

चीखे !! चिल्लाहटे!!! रूदन !! कराहटे!! मोहताज़ नही किसी ध्वनि की हृदय के किसी अंदरूनी कोने में भी घर बना लेती हैं कभी चुपचाप !! दर्द वेदना पीड़ा हर बार बयां हो संभव नही चेतना भी छिपा लेती हैं इनको भीतर अपने हर बार कई बार
आँखे अक्सर वोह कहती हैं जो लब छिपा जाते हैं लब अक्सर वोह कहते हैं जो आँखे बहा ले जाती हैं

रविवार, 20 अक्तूबर 2013

आज मैं चुप हूँ

आज मैं चुप हूँ 







  मैं चुप हूँ बाहर से 
पर भीतर 
ना जाने कितने 
वार्तालाप 
चलते हैं 

और मेरी रूह 
जख्मो से भरी 
रिसती हैं 
देर तलक 

ओ ढ लो मुझे 
तुम बनाकर 
और मैं लिपट जाऊ 
बुक्कल मार कर 

तेरा होना भी हैं 
पर तेरा कहलाना नही हैं 
भरम रखना हैं बस 
तेरे मेरे होने का 
मेरे तेरे होने का 

शब्द चुप हैं शोर मचाते हुए 
और भीतर कोलाहल हैं जज्बातों का 

और मैं गुम हूँ 
सोचते सोचते 
तेरे गालो की डिंपल याद करके 

और तुम .....

तेरी तुम जानो 
मेरी मैं ................. नीलिमा

मिटटी की गुडिया

न जाने क्यों 
मुझे सुनाई दे रही हैं सिसकियाँ 
एक
मिटटी की गुडिया की 
सबके सामने सजी सी रहती हैं एक आले में 
खूब सूरत शो पीस सी 
लेकिन कोई नही देख पता 
उसकी आँखों से बूँद बूँद 
गिरते आंसुओ को 
न पहचान पता हैं 
दुनिया के शोर में उसके रुदन को 
वोह गुडिया
जो कभी पसंदीदा खिलौना थी
किसी की हर वक़्त
आज आले मैं रखे उसे
ढूढ रहा हैं
नए खिलोने
बाजार में
गुडिया आज भी इंतज़ार में हैं
कि कभी याद आएगा उसको
वोह अतीत
वोह बचपन
वोह सच्चे खेल
क्युकी उसने सुना था
रिश्ते और अहसास
खिलौनो से भी जुड़ते हैं
पहले प्यार की तरह
पहला खिलोना भी
हमेशा याद रहता हैं .......नीलिमा 

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2013

तुझ में रब दिखता हैं यारा मैं क्या करू ???

लोग कहते हैं कि सुबह उठते ही करो प्रभू के दर्शन पर मैं जब भी खोलती हूँ अपनी आँखे मुंह अँधेरे तुम सामने दिख जाते हो बाल स्मित मुस्कान लिये बिखरे बाल लिए नींद में खोये से तुम्हारी घनी पलके तुम कभी कृष्ण कभी शिव का रूप लगते हो सजना! अब तुम ही कहो लोगो !!! मुझे किसी इश्वर की क्या जरुरत इनको जो देख लेती हूँ आँखे खुलते ही !!

एक जंग लगा पिन

एक जंग लगा पिन
 मुचड़े से कागज पर
 बिखरी हुयी चुडिया
आईने के सामने
मैली सी चादर
 बिछी बिस्तर पर
 यह बिखरे कपडे
 उसके पैताने

 एक भावात्मक
प्रतीकात्मक
 लिय  बेतरतीब फैली
 यह  चूड़ियाँ, चादर
 कपडे और झूठे बर्तन
बयानी करती हैं
तुम्हारे अनकहे अहसासों की

 तुम आजकल तनहा हो
 तन से भी मन से भी
 भावो और ख्यालो से भी


 तुम्हारे पास नही हैं आजकल
 तुम्हारी प्रिय "निविया "
 तुम्हारे दिल में उसकी यादो ने
इतना गहरा असर छोड़ा हैं
 और तुमने  
उसकी उतारी चूड़ियों को
 उसकी बिछाई चादर को
 उसके लिखे कागज को
 उसकी सब यादो को
बस बस ऐसे ही रख छोड़ा हैं
...............
 नीलिमा शर्मा  निविया 

सोमवार, 14 अक्तूबर 2013

श्रृंगार किये दुल्हन

श्रृंगार किये 
नयी नवेली सी दुल्हन 
शर्माते हुए 
लजाते हुए 
कपकपांते हुए 
रखती हैं 
साजन की दहलीज पर
अपना पहला कदम
रस्मो की एक
लम्बी श्रृंखला
रिवाजों की डोर
रिश्तो की भीड़
एक अलसाई सी महक
मन की खामोश चहक
चमकते गहनों का बोझ
नए नए कपड़ो की मौज
फिर भी
अजनबियत का अहसास
फिर भी कुछ
सौंधा सा माहौल
कुछ कुछ अपना सा
ढूढती निघाहे
किसी अपने को
अपनों सी भीड़ में
कनखियों से
मिलन के इंतज़ार में
नयी नवेली सी

श्रृंगार किये
दुल्हन ......................... नीलिमा


Kasturi (कस्तूरी) sanjha kavy sangrah se meri likhi nazm

शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

गिरह , गांठे

गिरह , गांठे 
कभी मजबूत बनाती हैं 
रिश्तो को 
जब बंध जाती हैं मध्य 

पर यही गांठे 
कमजोर बनाती हैं कभी
रिश्तो को
जब बंध जाती हैं मध्य

फर्क लफ्जों का नही
महसूस करने का होता हैं
गांठो को
उनकी गिरहो को
उनके होने को
उनकी वजूद को

सच इतना कि
वक़्त रहते
हमें देखते रहना चाहिए
रिश्तो को

उनके बीच की गांठे
प्यार तोड़ रही हैं
या
जोड़ रही हैं
कोई सिरा कमजोर तो नही


गांठे दो सिरों का मेल भी
मेल में अवरोध भी ................................नीलिमा शर्मा

गुरुवार, 10 अक्तूबर 2013

हिंदी अनुवाद सहित पंजाबी नज़्म





इक याद तेरी ने वर्का फोल्या
इक याद मेरी ने  स्याही लिती
 कुछ कुछ यादा तेरिया सी
मिठियां मीठियाँ
 कुछ यादां मेरियां सी
 सौंधी जी अलसाई सी


 वे  रान्झेया
 इक बारी वेल्ली रखी
 तेरे मेरे  विचोड़े ने
 अथरू   भर भर  के
 अँखियाँ इच
 लिखे ने
 पोथियाँ हजार
 

 अज हिज्र ने
 तेरे मेनू
  कमली   कित्ता

 आज चाड दितियाना ने खड्डी ते
सारियां  यादा
 बन'न लई
 एक दुशाला इश्क इच  प्हीजे हुर्फा नाल .............

 लोड मेनू  तेरी  निग दी ...नीलिमा
~~~~~~~~~~
 हिंदी अनुवाद

 एक याद तेरी ने पन्ना खोला
 एक याद मेरी ने स्याही ली
 कुछ यादे तेरी थी
 मीठी मीठी
 कुछ यादे मेरी थी
 सौंधी सी ,अलसाई सी

 ओ राँझा (प्रिय)
 एक अलमारी खाली  रखना
 तेरे मेरे विरह ने
आंसू भर भर कर
आँखों में
 लिखी हैं
 किताबे हजार


 तेरे विरह ने
 मुझे
 पागल किया हैं


 आज मैंने खड्डी ( कपडा बन'ने की मशीन ) पर
 चढा दी हैं सारी यादे
 बन'ने के लिय
 प्यार से भीगे शब्दों  का
शाल

 मुझे जरुरत हैं
 तेरे प्यार की गर्मी की ...................... नीलिमा 

बुधवार, 9 अक्तूबर 2013



Kash !!!
yeh barissh
kam na ho
Kabhi

Barasti rahe yu hi
boond -dar-boond
Mere Tan Man ko
Bhigoti si


Tum Suraj sa
dhahkate ho
Mai badal ban
jati hu baras



meri purnam aankhe
tumko
majboor kar jati hai tab

aksar
chipne ko
baadlo ki aot mei

Mujhe RImjhim pasand hai
or Apne kamre ki khuli khirki
Or baarish mai bheegte hue "Tum

"काश
यह बारिश
कम
न हो
बरसती रहे यु
बूँद दर बूँद
मेरे तन -मन को
भिगोती सी

तुम सूरज सा
दहकते हो
में बादल सी
बरस जाती हु
मेरी नाम आँखे
तुमको मजबूर
कर जाती है तब
अक्सर
छिपने को
बादलो की परतो में
मुझे रिमझिम पसंद है
और खुली खिरकी
अपने कमरे की ....................
और बारिश में भीगते हुए तुम
 —

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2013

यूं ही चलते चलते

बेवज़ह एक नज्म बन जाती हैं .
जब जब तुम मुझसे मुखातिब होते हो 
लफ्ज़ भी गुनगुनाने लगते हैं संगीत 
जब जब तुम मुझे अपनी कह जाते हो
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जैसे दिया हो किसी पीर ने रूहानी तागा ऐसे 
या मिला हो प्रसाद में एक चमकता सिक्का जैसे 
या गिरजे में जलती मोमबत्ती की सी लो सी 
माँ तेरा वजूदइस कदर मुझ में घुल गया कैसे
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कुछ लोग चुप हैं .....शोर मचाकर 

कुछ लोग शोर मचा रहे हैं ...चुप रहकर 

बगावत जारी हैं .ताकि सनद रहे ................
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कुछ भी नही !!!

फिर भी 

बहुत कुछ !!!

भीतर भीतर चलता हैं ............. 


अनचाहे ही ...अनजाने ही ...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
उम्र भर 
उम्र की चाह की 
पल भर में 
पल की उम्र फ़ना 
अब उम्र लघु 
या पल दीर्घ 
पसोपेश में 
आदमी !!!!! neelima
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

यतार्थ /पलायन

तुम्हारी इन दो आँखों में
झाँकने की हिम्मत
कभी नही हुए थी मेरी
ओर, आज
अब वही मैं हूँ
झांक रही हु .
देख रही हूँ इनमे
अपने दो अस्तित्व
यतार्थ और पलायन के बीच
आंदोलित
अपने ही दो अस्तित्व
एक जो जान रहा है
जीवन के सत्यो को
और दूसरा जो भाग रहा है
इसकी दुश्वारियो से
मैं निर्निमेष तुमको
तकती हु कुछ पल तक
और फिर झुका लेती हु अपनी पलके
तब मुझे ज्ञान होता है
अपने एक नए अस्तित्व का
जो मेरा व्याक्तितव है गोया
जो यतार्थ और पलायन के
मध्य दोलन कर रहा है
मैं हौले से
पलके उठाकर देखती हु
मेरा यतार्थ अस्तित्व
स्मित मुस्कान से
सोचता है तब
जीवन एक संघर्ष का नाम हैं
उठ! सामना कर!!
तू कमजोर नही !!
पर तभी
पलायन अस्तित्व फुफकारता है
तुम इन सब के लिए नही बनी
जिजीवषा और मृग तृष्णा की लढाई
तुम क्यों लड़ो

यतार्थ और पलायन की इस चक्की में
पिसती हुए मैं
सोच रही हूँ अक्सर विमूढ़ सी
किसके हवाले करू खुद को
यतार्थ मुझे अपनी और खिंच रहा है
पलायन मुझे अपनी और
मैं किमकर्ताव्य विमूढ़ सी
सोचो में गम हूँ
कि अब क्या हो / करूँ
तभी तुम अपनी दोनों आँखे बंद कर लेते हो
और विलीन हो जाते है
मेरे दोनों ही अस्तित्व
तब रह जाता है
यह मेरा अधुरा सा व्यक्तित्व
और छूट जाता है जहन पर एक बोझ
यतार्थ और पलायन का बोझ .............
इस उम्र का बोझ
उम्र भर का बोझ
ताउम्र का बोझ ............ नीलिमा शर्मा


साँझा काव्यसंग्रह " एक साँस मेरी " से

कहो तुम

कहो तुम 
जो अनकहा रह गया हैं 
मैं सुन रही हूँ 
वोह सब भी 
जो तुम कहकर नही 
कह पा रहे हो 
इतना ही तो फर्क हैं 
तुझ में ,मुझ में 
तुझे लफ्जों की जरुरत 
मुझे पढने के लिय 
मुझे सिर्फ तेरे सानिध्य की

सुनो
करीब से गुजर कर देखो
कल्पनाओ में भी
वोह सब भी पढ़ लूंगी
जो अभी सोचो
की परिधि में
आने को आतुर
होंगे भाव तुम्हारे ..................................... नीलिमा शर्मा Nivia