मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

आखिरी लम्हे







आखिरी लम्हे
खोया तो बहुत मैंने
पाया बहुत कम
समय अपनी चाल से
चलता रहा चाले 
और मैं मूक अवाक सी
देखती रही
उसकी धोखा धडी
और बहुत पीछे रह गयी
.
.
अपने से
अपनों से
उनसे जुड़े
अपने हर सपने से
___________________ नीलिमा शर्मा Nivia
















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

गर्माहट लफ्जों की



उन लम्हों को कैसे भूल जाए 
जब एक एक फंदा 
सलाई पर बुनती थी 
तुम्हारा नाम लेकर 
ऊनी दुशाले 
और तुम उसे लपेटे रहते थे 
अपने चारो तरफ
दिसम्बर की धूप / कोहरे में भी
आज
ना मेरे पास
वोह ऊनी धागे हैं
न सलायिया
बस अहसास भरे हैं भीतर
अब बुनती हूँ उनसे
प्यार से भरे / भीगे
हर्फो का शाल
गर्माहट लफ्जों की मेरे
ऊनी धागों से कमतर तो नही ......................
नीलिमा शर्मा Nivia




आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सोमवार, 27 अक्तूबर 2014

काले घेरे

रात का सन्नाटा 
गूंज बनकर 
अक्सर 
सताता हैं 
तब तब 
जब जब
यादो के गठ्ठर
आँखों के
इर्द-गिर्द
कालिमा बनकर
लटकने लगते हैं
और सुबह उठकर
झूठ बोला जाता हैं
बस वक़्त से सोये थे
अचानक नींद टूटी
फिर हम जागते ही रह गयी
यह यादो के गठ्ठर
जब खुलते हैं तो
एक के साथ दूसरी याद
इस कदर उलझी मिलती हैं
जैसे
समंदर में
ढेर सारी सीपिया बिखरी हो
यह औरते रात भर जाग कर
कभी बुना करती थी
स्वेअटर और मोज़े
आज सपने बुनती / udhedhti हैं
अपने और अपने से जुड़े अपनों के
रातो का जागना कभी मज़बूरी नही होता
आदत बन जाता हैं
अक्सर
यादो के गठ्ठर तले दबकर
अब

काले घेरे देख आँखों के
किसी की , सोचना
यादो का कितना बड़ा जखीरा हैं
इसके पास
और रात का सन्नाटा
चोकीदार कीसीटियाँ
अक्सर
उसे संगीत सी लगती हैं
अपने एकांत में .....




आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 18 सितंबर 2014

मन के कोने





धुंधला रहे हैं किताबो में लिखे हर्फ 
कांप रहे हाथ कटोरी को थामते हुए 
लकीरे बना चुकी हैं अपना साम्राज्य 
पेशानी और आँखों के इर्द गिर्द 

यह उम्र दराज़ होना भी 
कितना दर्द देता हैं 
कभी कहा जाता हैं तुम आराम करो 
दुनिया दारी बहुत कर ली 
कभी कहा जाता हैं बहुत 
जी लिया अपने मन का
अब हमें भी जीने दो

उम्र के इस मोड़ पर
जरुरत भी होती हैं
इस गैर जरुरी देह की

हर रिश्ते में एक पारदर्शी
दीवार दिखती हैं
अपनी ही जाई ओउलाद
परायी दिखती हैं

घर की देख रेख में
घर को बनाने में
एक उम्र गुजार देने वाले
यह बूढ़े लोग
मोहताज हो जाते हैं
सिर्फ एक कोने के लिय
अपने मन के कोने के लिय ..................................... नीलिमा शर्मा




















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सोमवार, 1 सितंबर 2014

माँ तो माँ होती हैं

 उम्र के इस मोड़ पर 
 भरे पूरे परिवार  में 
 तीन मंजिले मकान में 
बीमारियों  से भरी 
 फिर भी चलती फिरती 
कितनी अकेली होती हैं ....

हँसती  हैं आज भी 
 ठहाका लागाकर 
 बात - बेबात पर 
 भीतर के दर्द को छिपाकर 
और अन्दर अन्दर 
कैसे आंसुओ को पीती हैं ...

 कुछ तड़पती हैं 
कभी बरसती हैं 
 नए ज़माने की रंगत को  
धुंधलाती आँखों से 
 बूढ़े पति के कमीज में 
जब बटन पिरोती हैं ..........

झुक गयी अपनी कमर हो  
ढीले पढ़े  पति के कंधो हो 
दवाइयों की खुराक से 
तीन  वक़्त का भोजन करती 
माँ    बेटी की सिसकिया सुन 
खुद को अन्दर तक मसोसती  हैं ...

घर में चाहे तीन कार हो 
और रहते हो पाँच पुरुष 
पैसे की रेल पेल हो 
या विलासिता के भीड़ 
 अमीर माँ अक्सर रिक्शा में 
अपना और पति का बोझ ढोती हैं ......

 मज़बूरी होकर बुदापे  में 
 खुद रोटी को तरसते हुए भी 
मुठ्ठी में पुराने  नोट लेकर 
 मोतिया बिन्द  वाली आँखों से 
 बेटी नाती के आने की 
हर पल बाट  जोहती हैं 

 माँ तो माँ होती हैं 
पर अपनी माँ कब 
सबकी माँ होती हैं 
बेटे भी पराये होकर 
करते  मर जाने की दुआ
उस पल बेटी भी   माँ संग 
 खून क आंसू रोती  हैं ..


सब कुछ होता हैं बच्चो का 
पर आज अभी सब करते हैं 
क्यों नही यह मरते हैं 
 माँ पैसे से अमीर भी होकर 
अंतिम दिनों मैं क्यों 
बच्चो के प्यार से गरीब होती हैं .


उम्र के इस मोड़ पर 
 भरे पूरे परिवार  में 
 तीन मंजिले मकान में 
बीमारियों  से भरी 
 फिर भी चलती फिरती 
कितनी अकेली होती हैं ....





आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 28 अगस्त 2014

हम साथ साथ हैं



पत्थर तेरे सीने में भी हैं 
उनके जख्म मेरी रूह पर भी 
तुम कहानिया बनाना जानते 
और मैं लिखना 
तुम शोरमचाना जानते 
और मैं मौन रहना 
.
.
.
हम साथ साथ हैं 
जिन्दगी के हर मुकाम पर

दोस्त बनकर ......


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जिन्दगी

तेरे होने से यु गुलज़ार हुयी जिन्दगी 
लगने लगी अब हमें खुशगवार जिन्दगी 
इतने थपेड़े खाए थे हमने इस्सके पहले 
कि लगने लगी थी हमें , बेज़ार
जिन्दगी






आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

शुक्रवार, 16 मई 2014

Gunaah ya galti

गलती और गुनाह फ़र्क़ होता हैं दोनों में जिसे तुम गलती भी नही कहते कई बार गुनाह होता हैं दूसरो की नजर में और कई बार गुनाह भी छिप जाते हैं गलतियों की आड़ लेकर अहंकार अभिमान और क्रोध अहंब्रह्मास्मि जैसी सोच करदेती हैं रिश्ते को तार -तार आज अहसास नही इस पारदर्शी डोर के टूटने का लेकिन वक़्त गलतियों को गुनाह साबित कर ही देता हैं एक दिन। ………………………………………… नीलिमा शर्मा निविया








आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

शनिवार, 10 मई 2014

हीर राँझा


 वे  राँझेया
 अज  तेरे बुल्ल्यां  ते मेरा  ना ( नाम )

 हिक  फूल वर्गा  सजदा हे
  ते मैं  रूई  दे फाहे  वर्गी
 तेरे खोरे  जिस्म दे नाल
 खुद नु समेट  रहईया।

 एक गल्ल  डस
 जे मैं  कंडा    हूंदी
  ते तान वि  तूँ
 इन्ना हि कोल रखदा  मैंनु
 दस् मेरे  रान्झेया

 रांझे  ने एक ठंडा  होंका  भरया
 

 सुण  नी  मेरि हीरिये
 फूल तां  सारे हि सोणे   हुंदे  ने
 पर कंडया  इच खिड  दा  गुलाब
 सारेया  तुँ  सोहणा ते  सुभीता
 नी  मेरी हीरिये
  तूं  तान गुलाब हेगी
 सारेयाँ  तो सोहनी  वीँ  ते
 रानी जहि   व खरी  जि वीँ

 रांझे  दे हिक नाल लगीं   हीर 
दिल ही दिल आखन  लगी

 वे रान्झेया
 तूं  मैनू  गुलाब तँ  अख दित्ता
 पर ऎ  क्यों भुल  गयां 
 गुलाब सारयां  नु पसन्द आंदे
 ते सरैयां तु पहली गुलाब हि टूटदे
 शाखाओ तो
 हूँन  फूल दि    जिंदड़ी
 आख़िर  होंदी हि किननी  !!!!
 तू मेरे कोलो ना पूछीं  हुँ
 मेरे हन्जुआ नाल वि
 तेरे विछोडे  नही रूकने। ……………………।   नीलिमा शर्मा 


ve ranjhaya
aaj tere bullaya te mera na
ek ful warga sajda hey
main ek rooi de fahe wargi
tere jism de naal 
khud nu samet rahi haan
ek gal das
je main kanda hondi
te taan vi inna hi kol rakhda mainu
nit naye swere !
ve heeriye
ful taan saare hi sone honde ne
par kandya de wich
khid'da ful GULAAB
saraya to sohnaa
tu meri heer saareyaa fulaa to
vakhri vi te suthree vi
ve ranjheyaa
tu mainu gulaab te aakh dita
par a na bhul jaawi
gulaab nu saare
sabto pahle tod dende ne
te fulaa di umar taan
tu mere kolo naa pooch
mera hanjuaa naal
tere vichode nhi rookne !!!!! Neelima sharmaa Nivia












आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 20 मार्च 2014

चुप्पिया





चुप्पिया
जब गूँज बनकर
दिमाग में धमकने लगे
और
खामोशिया भी
खुद से गुफ्तगू करने लगे
तब
मेरे लफ्ज़ 

मुझे राहत देते हैं
अनजाने में
अनचाहे शब्द भी
जब
कलम से निकलते हैं
कुछ
बहने लगता हैं भीतर
शायद
चुप्पी से जन्मा गर्दा
ख़ामोशी से पनपा लावा
अपनों पर बरसे
इसके पहले
उतार लेती हूँ
इन्हें
कागज के मासूम टुकडो पर
यह कागज के टुकड़े
जो बलि चढ़ जाते हैं
मेरे मौन की
और
बना जाते हैं मुझे
मजबूत
फिर से
लड़ने को अपने
एकांत से
मौन रहना
मेरी आदत नही हैं
नियति बन रही हैं
सुनो ना !
कुछ पल मेरे साथ रहो
कुछ मुझे पढो
कुछ पढ्वाओ
मुझे भी जीना हैं
तुम्हारे
प्रेमसिक्त शब्दों के शोर में .............नीलिमा शर्मा Nivia
 —

















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

शनिवार, 15 मार्च 2014

होली के रंग



एक चुटकी गुलाल 
रंग होता लाल 
आँखों में आँखे 
रंग दिए गाल 

पानी भरे गुब्बारे
रात में भरकर सारे
छुप कर लगा निशाना
भीगे उनके कपडे सारे

गुझिया नमकीन मिठाई
सलहज साली भोजाई
रंग ही तो आज सबको
क्या इसकी उसकी लुगाई

फाग गीत और ढोल
भूल गये हम वो होली
इतिश्री अब होती बस
हैप्पी होली जैसे बोल

नीलिमा शर्मा Nivia





भाटिया जी खुश हैं 
आज उन्होंने जमकर खेली हैं 
साथ वाली अहलावत भाभी से होली 
हर बरस बीबी के संग होली मानते थे 
एक चुटकी रंग गाल पर लगाकर 
बस खुश हो जाते थे 
इस बार होली मिलन मैं जाऊँगा
जम कर होली मना ऊँगा
सोच कर मन ही मन हर्षाये
बीबी घर पर खेले होली
कॉलोनी के सारे युवा ,
उम्र के हो या मन से
होली मिलन में खेले होली
आज तो भैया जम के

घर आकर जो देखा हाल
मन ही मन घबराए
उन्होंने ने तो सिर्फ एक
की जोरू संग खेली होली
यहाँ अहलावत कृष्ण कन्हैया बन
सारी कॉलोनी में छाये
क्या बूढ़ी क्या कमसिन बाला
खुद उनकी अपनी बीबी
रंग रही थी उनके दुश्मन को
घर के बाहर लगा के ताला

हाथ पकड़ कर बाँह मरोड़ कर
बीबी को घर लाये
पलट के बोली
बुरा न मानो यह तो थी होली
देवर के संग बन के हम जोली
आज तो जैम के खेली होली

तुम घर रहते तो
तुम संग होली होती
न तुम मस्त होते न
मैं मदमस्त होती

अबसुन लो तुम मेरी बोली
बुरा न मानो सजन यह हैं होली....नीलिमा शर्मा Nivia



बुरा न मानों होली है!!!!!! इस बार सजन ने हमसे शर्त लगायी हैं खेलेंगे जमकर होली उनसे एक फिरंगन मेरी सहेली मेरे घर पर आई है देख जिसे इनकी भी बांछे खिल आई है नीला / पीला /लाल/गुलाबी रंगों की थाली सजाई हैं सरसों के तेल मालिश के संग इतर की महक भी उनसे आई हैं पर भूल गये वोह प्यारे साजन हम भी उन्ही की लुगाई हैं अपना पुराना सूट पहना के सहेली को हमने उनकी कफ्तान चुराई हैं बच्चो के संग भेज चौबारे फिरंगन को दो घूँट भांगहोंठो से लगायी हैं रंग के अपना पूरा चेहरा / बॉडी लिपट कर उनसे होली मनाई हैं नशे का असर सर पर नाचा धूम मोहल्ले मैं दोनों ने मचाई हैं फिरंगन ने देख के ऐसी होली खूब लम्बी विडिओ बनायीं हैं भांग के नशे में हमने भी जेज म्यूजिक पर दादरा ठुमरी सुनाई हैं साँझ तलक खेली हमने होली साजन हमको समझे फिरंगन सहेली नशा उतरने के बाद देख हमारी सूरत उनकी उढ़ी चेहरे से हवाई हैं जिन्दगी भर हारी उनसे
आज उनकी मैंने यह गत बनायीं हैं सर पर हाथ धर कर सोचे मेरे प्रभू एक बात यही समझ में आई हैं बीबी से भगवान् न जीते कभी मैंने तो बेकार मैं शर्त लगायी हैं अब न खेलू मैं किसी के भी संग होली कसम मेरे सर की उन्होंने खाई हैं .....नीलिमा








आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

शनिवार, 8 मार्च 2014

खुद पर अपने रखो विश्वास

आज फिर समूह में हंस रही हैं स्त्र्रियाँ
रंगबिरंगेपरिधानों में सजी
उम्मीदे के दामन थामे
एक दुसरे के गले लग रही है स्त्रिया

दूर गांव में उनकी सहोदारियाँ 
गांव की चोपाल से घर की दहलीज़ तक
अन्दर तक क्षत विक्षत हो रही हैं
अपने और अपनों के लिय

घर के भीतर पति से पिट कर आई
उनकी गृह सहायिका , लाल आँखों से
अपनी नीली देह को आँचल में छिपाती
खुश हैं अपने सुहाग चिन्हों के होने से

और गर्भ में पलती उनकी अजमी बेटी
गिन रही दिन अपनी मौत के
और स्त्रीया हंस रही हैं समूह में
महिला दिवस विश करके

दिन सिर्फ विश करने तक हैं
बड़े बड़े व्याख्यान तक बस
कमजोर खुद हैं स्त्री शक्ति
एक देह में मेहमान हैं बस

खुद पर अपने रखो विश्वास
अपने अन्दर भरो साहस
लड़ना अपने अपनों से नही
मिटाओ कमी जो हैंतुम में ख़ास

.....................नीलिमा शर्मा निविया





आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

सोमवार, 3 मार्च 2014

बस सात फेरे और तुम मेरे



बस सात फेरे 
और तुम मेरे 
कितना आसान हैं ना 
यूँ किसी का हो जाना 
पर एक उम्र भी कम होती हैं 
किसी का पूरी तरह हो जाने में 
बरसो तक का साथ 
फिर भी अजनबियत सी रहती 
और कभी एक पल 
उम्र भर को जोड़ देता हैं 
बिना सात फेरे लिय भी

एक स्त्री उम्र भर देती हैं पुरुष को संबल
फिर भी निकाह टूटे हैं आखिर क्यों ?
एक पुरुष खुद को भूलकर
बना लेता अजनबी का अपना सर्वस्व
फिर भी घरो में कटुता क्यों

विवाह ,परिणय निकाह
सब समाज के बनाये घेरे हैं
संबंधो के एक परिधि में रखने के
न स्त्री इस रेखा को पार करे
न पुरुष इस रेखा के भीतर
किसी अन्य के साथ प्रवेश करे
तभी सार्थक हैं
निकाह का कुबूल होना
अग्नि का साक्षी होना

आज विवाह बदल रहे हैं
कल तेरे आज मेरे होने में
आज निकाह तीन लफ्जों से
बदल रहे हैं उमरभर रोने में

आज स्त्रिया पछाड़े मार कर नही रोती
आज पुरुष रोनी सूरत बनाकर कतल नही करते किसी का
आज जश्न मनाया जाता हैं चाहे के अनचाहे हो जाने पर
फिर भी
विवाह ,परिणय ,निकाह
समाज की धुरी हैं और होते रहेंगे
और हम यु ही कभी ख़ुशी से
कभी उदासी से
इन रिश्तो को ढोते रहेंगे
ढोते रहेंगे ............
नीलिमा शर्मा निविया









आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

मंगलवार, 18 फ़रवरी 2014

एक टुकड़ा धूप



एक कोना 
अपना 
जिसमें 
छुपाये हैं 
मैंने 
ना जाने 
कितने
पुलकित क्षण
द्रवित मन
आंसुओ की बारिश
दोस्तों की साजिश
अकेलेपन की यादे
मिलन की बाते
,
,
,
आज वोह कोना
बगावत कर रहा हैं
उसे भी साथ
चाहिए
उसके भीतर की
सीलन को भी
एक टुकड़ा धूप चाहिए
नीलिमा शर्मा निविया





















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

नियति हैं नारी की

हर लड़की बीजती हैं सपने यौवन की दहलीज़ पर सलोने से सजीले से सुनहरे सपने और फिर बंद कर उनको मुठी में चली आती हैं साजन की देहरी पर और बिखेर देती हैं उनकी खुशबू अपने आस- पास सपने अंकुरित होंगे या नही निर्भर रहता हैं मिलने वाले प्यार पर कुछ के सपने मिटटी में ही दम तोड़ देते हैं और कुछ अंकुरण की कोख से बाहर ही निकाल पाते हैं कुछ सपने पल्लवित ,पुष्पित होने से पहले रौंद दिए जाते हैं फिर भी लडकिया सपने बीजना बंद नही करती सपनो की क़िस्म बदल जाती हैं बस और फसल का उगने का बेसब्री से रहता हैं इंतज़ार उनको और अछि फसल के लिय मन्नते / व्रत हजारो करती हैं क्युकी तब वोह लडकियां नही रहती माँ बन जाती हैं , बीबी बन जाती हैं और उनके सपने अपने लिय नही अपनों के लिय होते हैं बीजना और फसल उगाना . नियति हैं नारी की


















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

मुझे उड़ना हैं बहुत दूर तलक





 क्या मैं शब्दों की जादूगर हूँ !!! 

क्या मैं अग्रसर हूँ 


लेखिका  बन जाने की दिशा में !! 


ठिठकी हूँ मैं लफ्जों के द्वार पर 


अक्सर मिलते हैं जब मुझे 


कमेंट अपने लिखे शब्दों के जोड़ पर 


तब सोचती हूँ मैं हैरान सी 



मैंने तो ऐसा कुछ भी नही लिखा 


की इतना आगे बढ़कर उनको सराहा जाए 


मेरे लिखे शब्दों को मेरे सर पर चदाया जाए 


मैं बस अपने लिय अपने मन का लिखती हूँ 


कुछ खुशिया/ दर्द आस- पास से चुनती हूँ 


लफ्जों का लिबास पहना कर करीने से सहेज लेती हूँ 


सहेजने की मेरी भी एक सीमा हैं मेरा एक अपना तरीका 


पर कैसे कह देते कुछ लोग स्तर हीन ही लिखती हूँ

 
मैं नीलिमा हूँ और मैं स्वतंत्र आकाश की मालकिन भी 


अपने हिस्से के सितारे चुनकर स्वप्निल स्नेहिल दुनिया रचती हूँ 



कोई सितारा चमक उठ'ता हैं तो अच्छा लगता हैं सबका सरहाना 


कोई बुझा सितारा जब आता हैं झोली में तो अजीब लगता हैं वाह सुन इतराना 


मैं मैं हूँ बस अपने लफ्जों भावो की स्वामिनी 


मुझे उड़ना हैं अपने आकाश की परिधि में 


सच जानकार आपने पंखो की परवाज़ का 


मुझे झूठ न बताओ मुझसे सच न छुपाओ 



मेरी पंखो की उडान अभी कहाँ तक हैं 


और उड़ने का हौसला कहा तक हो 


इसका मुझे आभास दिलाओ 





.
..

मुझे उड़ना हैं बहुत दूर तलक







आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु