मंगलवार, 24 जुलाई 2012
मेरी हम नाम
तुम बिलकुल वैसे हो जैसे
मेरे नाम ने मुझे बनाया है
में भी अक्सर चाहती हु की
खामोश हो जाओ लफ्जों से
पर मेरे लफ्ज़ सुने सब
ओरो की जुबानी
मेरी हमनाम
यह कुछ पल की बात है
कुछ साँझ का आलम है
कुछ यादो ने घेरा है
कुछ अपने भी पराये होगे
कुछ पराये भी करीब आये होंगे
...उदासी है कुछ पल की
नाम की नीलिमा की तरह
कुहासा हट जायेगा
लफ्ज़ बोल उठेंगे तुम्हारे
.बस.......... देखना है इन मौन
पक्तियों में
कोण तुम्हारे अपने है लफ्जो के सानी
कोण धोध रहे है तुम्हारी इस ख़ामोशी के मानी
में कोई नही तेरी
तू कोई नही मेरी
फिर भी आज में
तुझसे बात करती हु
.
क्युकी में भी तेरी तरह
अपने नाम से ,
अपनी ख़ामोशी से
प्यार करती हु
तुम बिलकुल वैसे हो जैसे
मेरे नाम ने मुझे बनाया है
में भी अक्सर चाहती हु की
खामोश हो जाओ लफ्जों से
पर मेरे लफ्ज़ सुने सब
ओरो की जुबानी
मेरी हमनाम
यह कुछ पल की बात है
कुछ साँझ का आलम है
कुछ यादो ने घेरा है
कुछ अपने भी पराये होगे
कुछ पराये भी करीब आये होंगे
...उदासी है कुछ पल की
नाम की नीलिमा की तरह
कुहासा हट जायेगा
लफ्ज़ बोल उठेंगे तुम्हारे
.बस.......... देखना है इन मौन
पक्तियों में
कोण तुम्हारे अपने है लफ्जो के सानी
कोण धोध रहे है तुम्हारी इस ख़ामोशी के मानी
में कोई नही तेरी
तू कोई नही मेरी
फिर भी आज में
तुझसे बात करती हु
.
क्युकी में भी तेरी तरह
अपने नाम से ,
अपनी ख़ामोशी से
प्यार करती हु
एक जमाना था
माँ खाना बनती थी
पहली थाली भगवन की
दूसरी दादा दादी की लगाती थी
कुछ भी मीठा बनता था तो
पहला कोर दादी का होता था
पहला फल दादा के हाथ लगता था
हम बच्चे मुह बाये
करते थे इंतज़ार
कब दादी/दादा कह दे के
बेटा अब बस और नही चाहिए
और हम टूट पढ़े थाली पर
मिठाई और फल की कटी फांक पर
हम यु ही देखते देखते जवान हो गये
रसोई के बर्तन भी क्या से क्या हो गये
अब माँ चूल्हा नही फूक्ति उपलों वाला
अब माँ घंटो नही लगाती दाल पकाने में
आज भी रसोई माँ के ही हाथो में है
आज भी माँ के हाथ का स्वाद है उसमें
अब माँ दादी बन गये है और पापा दादा
माँ आज भी पहली थाली लगाती है .
तो वोह उनकी बहु अपने बेटे को दे आती है
स्कूल जाना है उसको भगवन तो घर पर ही रहेगा
पापा रिटायर हो चुके है ...बाद में भी खा लेंगे
भाई को ऑफिस जाना है
दूसरी थाली में जल्दी से खाना परोसती है
. मिठाई का हर भाग पहले बच्चो को जाता है
फिर उनके माता पिता को, फल भी सबसे पहले
सारा दिन मर-खप कर पैसे कमाने वाले बहु के पति को
माँ कभी अपने लिए थाली नही लगा पाई
पोते के थाली में बचे हुए खाने से ही तृप्त हो जाती है
पापा सबके जाने का इंतज़ार करते है
फिर थकी हुए माँ को सहमी सी आवाज़ में कहते है
चाय मिलेगी क्या?
लोग कहते है परिवर्तन आ गया है ..........
हाँ परिवर्तन आ ही गया है पहले माँ
भगवन और दादा/दादी की थाली लगाती थी
अब खुद दादी बनकर पहले बेटे बहु और पोते को खिलाती है
सबके जाने के बाद झूठे बर्तन समेत'ते हुए
बुदबुदाती है
क्युकी ज़माना बदल गया है .
और इस परिवर्तन के बोझ के सहते हुए
जिन्दगी को जिए चली जाती है .......................... नीलिमा शर्मा
माँ खाना बनती थी
पहली थाली भगवन की
दूसरी दादा दादी की लगाती थी
कुछ भी मीठा बनता था तो
पहला कोर दादी का होता था
पहला फल दादा के हाथ लगता था
हम बच्चे मुह बाये
करते थे इंतज़ार
कब दादी/दादा कह दे के
बेटा अब बस और नही चाहिए
और हम टूट पढ़े थाली पर
मिठाई और फल की कटी फांक पर
हम यु ही देखते देखते जवान हो गये
रसोई के बर्तन भी क्या से क्या हो गये
अब माँ चूल्हा नही फूक्ति उपलों वाला
अब माँ घंटो नही लगाती दाल पकाने में
आज भी रसोई माँ के ही हाथो में है
आज भी माँ के हाथ का स्वाद है उसमें
अब माँ दादी बन गये है और पापा दादा
माँ आज भी पहली थाली लगाती है .
तो वोह उनकी बहु अपने बेटे को दे आती है
स्कूल जाना है उसको भगवन तो घर पर ही रहेगा
पापा रिटायर हो चुके है ...बाद में भी खा लेंगे
भाई को ऑफिस जाना है
दूसरी थाली में जल्दी से खाना परोसती है
. मिठाई का हर भाग पहले बच्चो को जाता है
फिर उनके माता पिता को, फल भी सबसे पहले
सारा दिन मर-खप कर पैसे कमाने वाले बहु के पति को
माँ कभी अपने लिए थाली नही लगा पाई
पोते के थाली में बचे हुए खाने से ही तृप्त हो जाती है
पापा सबके जाने का इंतज़ार करते है
फिर थकी हुए माँ को सहमी सी आवाज़ में कहते है
चाय मिलेगी क्या?
लोग कहते है परिवर्तन आ गया है ..........
हाँ परिवर्तन आ ही गया है पहले माँ
भगवन और दादा/दादी की थाली लगाती थी
अब खुद दादी बनकर पहले बेटे बहु और पोते को खिलाती है
सबके जाने के बाद झूठे बर्तन समेत'ते हुए
बुदबुदाती है
क्युकी ज़माना बदल गया है .
और इस परिवर्तन के बोझ के सहते हुए
जिन्दगी को जिए चली जाती है ..........................
—
Kuch Alfaz mere
jo ghayal kar gye hai
tumko
mai janti hu yeh
Anjaane mai
mayne vo na they
jo ho gye they
kaha kuch tha
kahna kuch tha
or ho kuch gya
aisa kyo ho jata aksar
darmiyan hamare
ham ek doosre ke purak hai
fir bhi anupoorak ho jate hai
kabhi kabhi
tumhare apne
jab mujhe ander tak
ghayal kar jate hai
tum deewar bankar
aksar
mere lafzo ki barish se
bacha le jate ho unhe
or khud jal jate ho
un lafzo ke ajab se
kabhi to socho
mere ander ki aag ka
rishto ko alag karke
tere mere se alag karke
ke tab yeh tezabi barish na ho
mujhe pachtawa hota hai tab aksar
jab
jab bhi
tum ajnabi bani ya to chup rah jate ho
ya bin badal ki badli sa baras jate ho mujhpar
tum seene mei dabi chinggariya to hongi
rakh mai dabi si jhulsati hue si
ab jindgi ke is raste par
tum sirf or sirf mere bankar raho na
bahut rah lia tumne apne apno ka apna hokar
ab tto khuda ka sarmaya hai k
mere lafzo mai tezabi barish na ho kabhi ................ Neelima sharma
jo ghayal kar gye hai
tumko
mai janti hu yeh
Anjaane mai
mayne vo na they
jo ho gye they
kaha kuch tha
kahna kuch tha
or ho kuch gya
aisa kyo ho jata aksar
darmiyan hamare
ham ek doosre ke purak hai
fir bhi anupoorak ho jate hai
kabhi kabhi
tumhare apne
jab mujhe ander tak
ghayal kar jate hai
tum deewar bankar
aksar
mere lafzo ki barish se
bacha le jate ho unhe
or khud jal jate ho
un lafzo ke ajab se
kabhi to socho
mere ander ki aag ka
rishto ko alag karke
tere mere se alag karke
ke tab yeh tezabi barish na ho
mujhe pachtawa hota hai tab aksar
jab
jab bhi
tum ajnabi bani ya to chup rah jate ho
ya bin badal ki badli sa baras jate ho mujhpar
tum seene mei dabi chinggariya to hongi
rakh mai dabi si jhulsati hue si
ab jindgi ke is raste par
tum sirf or sirf mere bankar raho na
bahut rah lia tumne apne apno ka apna hokar
ab tto khuda ka sarmaya hai k
mere lafzo mai tezabi barish na ho kabhi ................ Neelima sharma
कुछ अल्फाज़
घायल कर गये है मेरे
तुमको
में जानती हु
अनजाने में
मायने वोह न थे
जो हो गये
कहा कुछ था
काहना कुछ था
और हो गया कुछ और
ऐसा क्यों हो जाता है
दरमियान हमारे
हम पूरक है एक दुसरे के
फिर भी अनुपूरक
हो जाते है कभी कभी
तुम्हारे अपने
जब मुझे भेद जाते है
भीतर तलक
तुम ढाल बनकर
आक्सर
मेरे लफ्जों की बारिश से
उनको बचा लेते हो
खुद भीग जाते हो उस तेजाबी बारिश में
कभी मूल्याङ्कन करो मेरे भीतर की अग्नि का
रिश्तो को अपने मेरे की तराजू से अलग करते हुए
क मेरे तेजाबी लफ्जों की बारिश न हो ......
मुझे पचाताप होता है
जब तुम अजनबी बन
चुप रह जाते हो या
बरस जाते हो
बिन मौसम की बदली की तरह
राख के नीचे दबी चिंगारियाँ होंगी ज़रूर,
झुलसती सी हफ्ती सी
इस जिन्दगी के रस्ते पर
अब तुम सिर्फ मेरे होकर रहो .........
बहुत रह लिए अपनों क लिए .........
अब मेरे अपने जन्मो क
अपने बन जाने का वक़्त आया है
मेरे लफ्जों की तेजाबी बारिश हो कम
.खुदा का ही अब सरमाया है
घायल कर गये है मेरे
तुमको
में जानती हु
अनजाने में
मायने वोह न थे
जो हो गये
कहा कुछ था
काहना कुछ था
और हो गया कुछ और
ऐसा क्यों हो जाता है
दरमियान हमारे
हम पूरक है एक दुसरे के
फिर भी अनुपूरक
हो जाते है कभी कभी
तुम्हारे अपने
जब मुझे भेद जाते है
भीतर तलक
तुम ढाल बनकर
आक्सर
मेरे लफ्जों की बारिश से
उनको बचा लेते हो
खुद भीग जाते हो उस तेजाबी बारिश में
कभी मूल्याङ्कन करो मेरे भीतर की अग्नि का
रिश्तो को अपने मेरे की तराजू से अलग करते हुए
क मेरे तेजाबी लफ्जों की बारिश न हो ......
मुझे पचाताप होता है
जब तुम अजनबी बन
चुप रह जाते हो या
बरस जाते हो
बिन मौसम की बदली की तरह
राख के नीचे दबी चिंगारियाँ होंगी ज़रूर,
झुलसती सी हफ्ती सी
इस जिन्दगी के रस्ते पर
अब तुम सिर्फ मेरे होकर रहो .........
बहुत रह लिए अपनों क लिए .........
अब मेरे अपने जन्मो क
अपने बन जाने का वक़्त आया है
मेरे लफ्जों की तेजाबी बारिश हो कम
.खुदा का ही अब सरमाया है
—
Kash !!!
yeh barissh
kam na ho
Kabhi
Barasti rahe yu hi
boond -dar-boond
Mere Tan Man ko
Bhigoti si
Tum Suraj sa
dhahkate ho
Mai badal ban
jati hu baras
meri purnam aankhe
tumko
majboor kar jati hai tab
aksar
chipne ko
baadlo ki aot mei
Mujhe RImjhim pasand hai
or Apne kamre ki khuli khirki
Or baarish mai bheegte hue "Tum
"काश
यह बारिश
कम
न हो
बरसती रहे यु
बूँद दर बूँद
मेरे तन -मन को
भिगोती सी
तुम सूरज सा
दहकते हो
में बादल सी
बरस जाती हु
मेरी नाम आँखे
तुमको मजबूर
कर जाती है तब
अक्सर
छिपने को
बादलो की परतो में
मुझे रिमझिम पसंद है
और खुली खिरकी
अपने कमरे की ....................
और बारिश में भीगते हुए तुम
yeh barissh
kam na ho
Kabhi
Barasti rahe yu hi
boond -dar-boond
Mere Tan Man ko
Bhigoti si
Tum Suraj sa
dhahkate ho
Mai badal ban
jati hu baras
meri purnam aankhe
tumko
majboor kar jati hai tab
aksar
chipne ko
baadlo ki aot mei
Mujhe RImjhim pasand hai
or Apne kamre ki khuli khirki
Or baarish mai bheegte hue "Tum
"काश
यह बारिश
कम
न हो
बरसती रहे यु
बूँद दर बूँद
मेरे तन -मन को
भिगोती सी
तुम सूरज सा
दहकते हो
में बादल सी
बरस जाती हु
मेरी नाम आँखे
तुमको मजबूर
कर जाती है तब
अक्सर
छिपने को
बादलो की परतो में
मुझे रिमझिम पसंद है
और खुली खिरकी
अपने कमरे की ....................
और बारिश में भीगते हुए तुम
—
सोमवार, 16 जुलाई 2012
लौट आओ
लफ्जों के कोलाहल में
सांसो का सन्नाटा है
समंदर सी गहराई भीतर
भावनाओ का ज्वार-भाटा है
ख़ामोशी पसरी है चारो और
बस डूबते
तारे के धड़कने की आवाज़
मधुर संगीत की
तरह..,
सुगंध लिए ..उसकी . मेरा मन
अजन्मी अतृप्त इच्छाएं भी
कशमकश में अटकी हुई.....
याद के धागे बनाकर
हर एक लम्हा..
बुनती हु उसकी स्वेटर
हवाए भी खटखटा रही है
मेरे मन का सूना ,
अनदेखा वोह कोना ....................
........
सुनो न लौट आओ
.
बहुत होते है 15 दिन!!
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