मंगलवार, 28 मई 2013
Bindi
कितनी ओल्ड फैशंड हो तुम
इत्ती बड़ी सी बिंदी लगाती हो !!!
कल सरे राह चलते चलते
कह गयी एक महिला
जिसकी आँखों पर पर तो
ढेर सारा काजल था पर
माथा सूना सा
नही जानती वोह
बिंदी का फैशन से क्या लेना
यह जज्बात हैं
मेरे उनसे जुड़ जाने के
उनके मेरे हो जाने के
बिंदी मेरी
उनको याद दिलाती हैं
हरदम
जल्दी घर लौट कर आने की
बिंदी मेरी याद दिलाती हैं सबको
मेरे सुहागन होने की
मुझे याद रहता हैं सुबह सुबह
लाल बिंदिया से माथे को सजाना
और बिंदिया में \
मैं पा लेती हूँ अपने और उनके
एक होने की जुबानी को
मुझे प्यार हैं अपनी बिंदिया से
अपने आउट डेटेड होने से .............................Neelima Sharrma
मैं एक प्रश्नचिन्ह सी
मैं एक प्रश्नचिन्ह सी
सामने खड़ी रहती हूँ
तुम्हारे
और तुम
मेरे हर प्रश्न का उत्तर बन
बाँहे पसार देते हो
और समेट लेते हो
मेरे सारे अंतर्द्वंद को
अपनी भीनी सी महक
और मुस्कराहट में
और मैं हर सुबह
नए पश्नो संग
तुम्हारे सामने होती हूँ
खुशकिस्मत सी
और तुम बिना थके
बिना किसी उकताहट के
मेरी जिज्ञासाए
शांत करते हो
सुनो न ....
मेरे प्रश्न सिर्फ तुम्हारी
नजदीकियों के मुन्तजिर
होते हैं
किसी जवाब के नही
मैं ..................नीलिमा
सामने खड़ी रहती हूँ
तुम्हारे
और तुम
मेरे हर प्रश्न का उत्तर बन
बाँहे पसार देते हो
और समेट लेते हो
मेरे सारे अंतर्द्वंद को
अपनी भीनी सी महक
और मुस्कराहट में
और मैं हर सुबह
नए पश्नो संग
तुम्हारे सामने होती हूँ
खुशकिस्मत सी
और तुम बिना थके
बिना किसी उकताहट के
मेरी जिज्ञासाए
शांत करते हो
सुनो न ....
मेरे प्रश्न सिर्फ तुम्हारी
नजदीकियों के मुन्तजिर
होते हैं
किसी जवाब के नही
मैं ..................नीलिमा
रविवार, 26 मई 2013
andhere or tum
तुम को पता है न
मुझे अँधेरे से दर लगता हैं
काली राते मुझे सताती हैं
स्याह अँधेरा मुझे समेट लेता हैं
अपने भीतर पंजो में दबोचकर
और मैं डर कर
छिप जाती थी तुम्हारी आगोश में
आज मैं अकेली हूँ
निपट अकेली
स्याह अँधेरे हैं अमावस के
जो मुझे खिंच रहे हैं
अपने भीतर
मैं चीख रही हूँ
बेहताशा
पर कोई सुन नही पता मेरी आवाज़ को
तुमने तो कहा था
तुम दोजख तक मेरा साथ दोगे
मेरे दमन मे लगी आग बूझो दो गे
आज मैं घिरी हुयी हूँ इस दुनिया में
आवाजों/तानो/तंजो उलाहनो में
कसूरवार हूँ बेकसूर होकर भी
और तुम!!!
तुमने मुझे अँधेरे में रखा
अब
मुझे अंधेरो की आदत होने लगी हैं
मैंने तो सिर्फ मोहब्बत की थी उजाले से
तुमने तो अँधेरे से भी बेवफाई की हैं ......
मुझे अँधेरे से दर लगता हैं
काली राते मुझे सताती हैं
स्याह अँधेरा मुझे समेट लेता हैं
अपने भीतर पंजो में दबोचकर
और मैं डर कर
छिप जाती थी तुम्हारी आगोश में
आज मैं अकेली हूँ
निपट अकेली
स्याह अँधेरे हैं अमावस के
जो मुझे खिंच रहे हैं
अपने भीतर
मैं चीख रही हूँ
बेहताशा
पर कोई सुन नही पता मेरी आवाज़ को
तुमने तो कहा था
तुम दोजख तक मेरा साथ दोगे
मेरे दमन मे लगी आग बूझो दो गे
आज मैं घिरी हुयी हूँ इस दुनिया में
आवाजों/तानो/तंजो उलाहनो में
कसूरवार हूँ बेकसूर होकर भी
और तुम!!!
तुमने मुझे अँधेरे में रखा
अब
मुझे अंधेरो की आदत होने लगी हैं
मैंने तो सिर्फ मोहब्बत की थी उजाले से
तुमने तो अँधेरे से भी बेवफाई की हैं ......
शनिवार, 25 मई 2013
lafzo ki udhed bun
अपने भावो को लफ्जों में पिरोना
फिर उनको बार बार पढना
कभी तेरी नजर से
कभी अपनी नजर से
और फिर खो जाना
लफ्जों की भीड़ में
अक्सर होता हैं न
मेरे साथ भी
तुम्हारे साथ भी
फिर भी लफ्जों से यारी
कभी कम नही होती
हाँ सुर जरुर बदल जाते हैं
कभी पंचम सुर तो
कभी सप्तम सुर
कभी आरोह अवरोह से
उतरते चदते सुर
लफ्ज़ कभी भावो से भरे
तो कभी भावहीन से
कभी पुलकित करते हुए से
तो कभी एकदम ग़मगीन से
कभी कभी ख्याल आता हैं
लफ्ज़ न होते तो
भाषा कैसे होती
न हमारे भाव उमड़ते
न हम संवेदनशील होते
भाषा मूक भी होती हैं
भाव होते हैं उस में भी लफ्जों से
और भाव भंगिमाओ से
भी बयां होते हैं
कभी कभी सोचती हूँ अकेले में
कैसे पहले मानव ने
बिना भाषा /भावो के
अपनी प्रेयसी को
प्रेम निवेदन किया होगा
कैसे माँ ने
बिना भावो के
बच्चे को जन्म दिया होगा
कैसे जुदा हुयी होगी
बेटी माँ और बाबुल से
बहन को विदा कर
भाई कैसे रोया होगा
लफ्जों से ही हैं
सारे भाव / भंगिमाओ का बयां
बस कभी उनको
आत्मसात कर जाते हैं
कभी अनजबी बन देखते रहते हैं
अपने ही लिखे /कहे लफ्जों को...
फिर उनको बार बार पढना
कभी तेरी नजर से
कभी अपनी नजर से
और फिर खो जाना
लफ्जों की भीड़ में
अक्सर होता हैं न
मेरे साथ भी
तुम्हारे साथ भी
फिर भी लफ्जों से यारी
कभी कम नही होती
हाँ सुर जरुर बदल जाते हैं
कभी पंचम सुर तो
कभी सप्तम सुर
कभी आरोह अवरोह से
उतरते चदते सुर
लफ्ज़ कभी भावो से भरे
तो कभी भावहीन से
कभी पुलकित करते हुए से
तो कभी एकदम ग़मगीन से
कभी कभी ख्याल आता हैं
लफ्ज़ न होते तो
भाषा कैसे होती
न हमारे भाव उमड़ते
न हम संवेदनशील होते
भाषा मूक भी होती हैं
भाव होते हैं उस में भी लफ्जों से
और भाव भंगिमाओ से
भी बयां होते हैं
कभी कभी सोचती हूँ अकेले में
कैसे पहले मानव ने
बिना भाषा /भावो के
अपनी प्रेयसी को
प्रेम निवेदन किया होगा
कैसे माँ ने
बिना भावो के
बच्चे को जन्म दिया होगा
कैसे जुदा हुयी होगी
बेटी माँ और बाबुल से
बहन को विदा कर
भाई कैसे रोया होगा
लफ्जों से ही हैं
सारे भाव / भंगिमाओ का बयां
बस कभी उनको
आत्मसात कर जाते हैं
कभी अनजबी बन देखते रहते हैं
अपने ही लिखे /कहे लफ्जों को...
गुरुवार, 16 मई 2013
बचपन अनहद नाद सा बजता रहता हैं सांसो में
जिन्दगी की आरोह अवरोह में
झंकृत संगीत सी
पंचम सुर से सप्तम सुर तक
ख्याल , टप्पे , ठुमरी सी
अलंकार की बेतरतीब लय में
फिर भी यादो में सज्जित
मीठी मीठे कलरव सी
होती रहती हैं गुंजित
बचपन की
वोह भूली यादे
वो कच्ची लड़ाइया
वोह पक्की कुट्टिया
फिर अप्पा/ अब्बा का खेल
पो शम्पा भाई पो शम्पा
ऊँच या नीच में
लगड़ी टांग में
या छुप्पन छुपायी
बारात घर की दौड़ या
चन्नी की दूकान
तितु की शिकायते
गानों का शोर
बचपन अनहद नाद सा
बजता रहता हैं सांसो में
अपने भाई -बहनों की यादो संग
चाहे बसे हो दूर देश में ...................................... नीलिमा
missing my brothers sisters .:(
बुधवार, 15 मई 2013
खंगाल रही हूँ
खंगाल रही हूँ पुराने पन्ने
अपनी लिखी
डायरी के
पुराने पन्ने
जिस पर
कई बार कडवाहट
कई बार झुंझलाहट
उड़ेली थी मैंने
अक्षरक्ष
जब तब
कुण्ठित /
अवसादित
हो कर
रंगा था मैंने
अकेलेपन में
फाड़ डालना हैं
अब उन पन्नो को
बिना दुबारा -तिबारा पढ़े
भूल जाना हैं
उन उदास पलो को
सुनो न
नयी डायरी लेनी हैं
जिन्दगी को नए सिरे से लिखना हैं
मुझे प्रेम की स्याही से ................नीलिमा शर्मा
बुधवार, 8 मई 2013
कन्या जन्म का अधिकार
सुनो ! सुनो! सुनो!!!
मेरे देश की बहनों
ध्यान से सुनो !!
देश में लिंग अनुपात बिगड़ रहा हैं
और व्यभिचार ज्यादा बढ़ रहा हैं
४-५ लडको पर हो रही हैं एक लड़की
भविष्य में होगी विवाह के लिय कडकी
तुम हो सूत्रधार हो सृष्टि की
तुम ही प्रजनन का आधार भी
तो अब सब तुम्हारे हाथो में है
मुह दिखाई मैं अब गहने नलो
कन्या जन्म का अधिकार लो
तुम्हारीअपनी पहली पीढ़ी ने
अपनी ही जात को बदनाम किया
बहु ने जो पोती को जन्म दिया
सास ने उसका अपमान किया
अब आयी तुम्हारी बारी हैं
कन्या भ्रूण को जन्म दो
जन्म देने वाली को मान भी
नारी हो नारी को सम्मान दो
पुरुषो को दो पैगाम भी
परिवार दिवस हैं आने वाला
परिवार अपना तुम बनाओ
बेटे बेटी का भेद मिटा कर
खुशहाल समाज तुम बनाओ . नीलिमा
—
मेरे देश की बहनों
ध्यान से सुनो !!
देश में लिंग अनुपात बिगड़ रहा हैं
और व्यभिचार ज्यादा बढ़ रहा हैं
४-५ लडको पर हो रही हैं एक लड़की
भविष्य में होगी विवाह के लिय कडकी
तुम हो सूत्रधार हो सृष्टि की
तुम ही प्रजनन का आधार भी
तो अब सब तुम्हारे हाथो में है
मुह दिखाई मैं अब गहने नलो
कन्या जन्म का अधिकार लो
तुम्हारीअपनी पहली पीढ़ी ने
अपनी ही जात को बदनाम किया
बहु ने जो पोती को जन्म दिया
सास ने उसका अपमान किया
अब आयी तुम्हारी बारी हैं
कन्या भ्रूण को जन्म दो
जन्म देने वाली को मान भी
नारी हो नारी को सम्मान दो
पुरुषो को दो पैगाम भी
परिवार दिवस हैं आने वाला
परिवार अपना तुम बनाओ
बेटे बेटी का भेद मिटा कर
खुशहाल समाज तुम बनाओ . नीलिमा
फरेब
मर रही थी तुम्हारे लिय , लड़ रही थी अपनों से
और तुम !! इंतज़ार कर रहेथे
उसी नुक्कड़ वाली दूकान पर
मेरे आने का , पैसे और गहनों की पोटली के साथ
उस बनिए की बेटी से आँख मटक्का करते हुए !!
छुपा लिए अपने आंसू गुस्से की आड़ देकर
लो जहा चाहो करदो मेरी बर्बादी अपनी जात में
रो दी थी मैं बहन का कन्धा थाम कर
उस डाक्टर से शादी के लिय हाँ करते हुए !!!
हाँ कोई नही था मेरा तुम से पहले
तुम ही खुदा हो मेरे भगवान् हो
कितनी नफरत हुयी थी उस पल मुझको
उसकी बाहों में खुद को समर्पित करते हुए !!!!
अब आइना मेरा मुझसे सवाल करता हैं
फरेब कितना अब इंसान करता हैं
धोखेबाज कहकर सबको
इंसान खुद कितना धोखा अपने आप करता हैं ............नीलिमा
और तुम !! इंतज़ार कर रहेथे
उसी नुक्कड़ वाली दूकान पर
मेरे आने का , पैसे और गहनों की पोटली के साथ
उस बनिए की बेटी से आँख मटक्का करते हुए !!
छुपा लिए अपने आंसू गुस्से की आड़ देकर
लो जहा चाहो करदो मेरी बर्बादी अपनी जात में
रो दी थी मैं बहन का कन्धा थाम कर
उस डाक्टर से शादी के लिय हाँ करते हुए !!!
हाँ कोई नही था मेरा तुम से पहले
तुम ही खुदा हो मेरे भगवान् हो
कितनी नफरत हुयी थी उस पल मुझको
उसकी बाहों में खुद को समर्पित करते हुए !!!!
अब आइना मेरा मुझसे सवाल करता हैं
फरेब कितना अब इंसान करता हैं
धोखेबाज कहकर सबको
इंसान खुद कितना धोखा अपने आप करता हैं ............नीलिमा
मंगलवार, 7 मई 2013
तुम्हारे ख़त !!!
तुम्हारे ख़त !!!
जब भी कभी
किताबो के पीछे
नीले लिफाफे में रखे
तुम्हारे ख़त
सबसे छुपकर
पढ़ती हूँ न
फुरसत से,
तो खुद को
लफ्जों में
लिपटा हुआ पाती हूँ
हर दो लफ्जों के बीच में
जो जरा सा स्पेस होता हैं
वहां महसूस करती हूँ
वजूद अपना
तुम्हारे लफ्जों में जुडा सा
जब साँस लेती हूँ
उन शब्दों के मध्य
तो खुद को पाती हूँ
एक आलोकिक
स्वर्ग सरीखे लोक मैं
तुम्हारे स्पर्श को महसूस करते हुए
जहा मेरा वजूद जमीन पर होता हैं
और सोचे आसमान पर ...................neelima
—
जब भी कभी
किताबो के पीछे
नीले लिफाफे में रखे
तुम्हारे ख़त
सबसे छुपकर
पढ़ती हूँ न
फुरसत से,
तो खुद को
लफ्जों में
लिपटा हुआ पाती हूँ
हर दो लफ्जों के बीच में
जो जरा सा स्पेस होता हैं
वहां महसूस करती हूँ
वजूद अपना
तुम्हारे लफ्जों में जुडा सा
जब साँस लेती हूँ
उन शब्दों के मध्य
तो खुद को पाती हूँ
एक आलोकिक
स्वर्ग सरीखे लोक मैं
तुम्हारे स्पर्श को महसूस करते हुए
जहा मेरा वजूद जमीन पर होता हैं
और सोचे आसमान पर ...................neelima
सोमवार, 6 मई 2013
तुम खुश तो हो न सोना
शाम का वक़्त हैं
और मैं यहाँ तनहा
तुम्हारी यादो के संग हूँ
आलू के पराठो की सोंधी सुगंध
तुम्हारा जल्दी से आना
शाम को तुम्हारी सहेली का इर्द- गिर्द होना
विपरीत रास्ता होने पर भी
अब तुम दूर देश में
अपने अपने के साथ
जब बनाती होगी
मजबुरिया क्या नही करवाती सोना
जानती हो सामने वाली बेंच पर
एक जोड़ा खा रहा हैं लंच बॉक्स से
मसालेदार आलू के पराठे
और मैं यहाँ तनहा
तुम्हारी यादो के संग हूँ
आलू के पराठो की सोंधी सुगंध
तुम्हारा जल्दी से आना
और कहना
लंच टाइम हैं
जल्दी जाना होगा
शाम को मिलती हूँ
कहकर मुझे बहलाना!
लंच टाइम हैं
जल्दी जाना होगा
शाम को मिलती हूँ
कहकर मुझे बहलाना!
शाम को तुम्हारी सहेली का इर्द- गिर्द होना
विपरीत रास्ता होने पर भी
मेरा भीड़ में
बस पर तुम्हारे साथ चढ़ जाना
बस पर तुम्हारे साथ चढ़ जाना
और महसूस करना
उस रस्ते भर तुम्हारी खुशबू
उस रस्ते भर तुम्हारी खुशबू
और महक को
भर लेता था अंतर्मन में
भर लेता था अंतर्मन में
करवटे बदल कर
रात गुजर जाती थी
सुबह के इंतज़ार में
रात गुजर जाती थी
सुबह के इंतज़ार में
एक बार फिर से
लंच टाइम के इंतज़ार में
अब तुम दूर देश में
अपने अपने के साथ
जब बनाती होगी
मसालेदार आलू के पराठे
और लगाती होगी ठहाके
तो कही न कही
जरुर कसकता होगा
मेरा प्यार
और लगाती होगी ठहाके
तो कही न कही
जरुर कसकता होगा
मेरा प्यार
और तुम मेरे नाम से भी
एक कौर
जरुर खाती होगी
मजबुरिया क्या नही करवाती सोना
जानती हो सामने वाली बेंच पर
एक जोड़ा खा रहा हैं लंच बॉक्स से
मसालेदार आलू के पराठे
खुशबू सारे माहौल में हैं
पराठो की भी
उनकी मोहब्बत की भी
पर .......क्या?
फिर से एक नया इतिहास लिखा जायेगा
और कोई मेरी तरह ऐसे ही
पेड़ के नीचे यादो में खो जायेगा
फिर से एक नया इतिहास लिखा जायेगा
और कोई मेरी तरह ऐसे ही
पेड़ के नीचे यादो में खो जायेगा
चलो जाने दो !!
तुम खुश तो हो न सोना
मैंने तो आलू के पराठे खाने ही छोड़ दिए ................नीलिमा
तुम खुश तो हो न सोना
मैंने तो आलू के पराठे खाने ही छोड़ दिए ................नीलिमा
रविवार, 5 मई 2013
लडकियों दुनिया बदल रही हैं
लडकियों
दुनिया बदल रही हैं
किस्मत चमक रही हैं
अब घर बेठने से कम नही चलेगा
उठो निकलो काम पर अपने काम से
रास्ता अँधेरा होगा
दूर पर कही सवेरा होगा
रोशन करनी हैं तु म्हे दुनिया
उठो चलो कदम बढाओ शान से
एक अकेली मत चलो
आपस में तुम मत लड़ो
छा सकती हो तुम दुनिया पर
जब चला दो झुण्ड में तीर कमान से
कारवां होने लगा छोटा
नर नारी की जातका
कन्या को भी जन्मदो
और समूह बनाओ उनका तुम सम्मान से
एकता मैं बल हैं
बल ही बलवान हैं
नारी ही नारी की दुश्मन
झूठ कर दो इस बयां को अपने ज्ञान से .................. नीलिमा
दुनिया बदल रही हैं
किस्मत चमक रही हैं
अब घर बेठने से कम नही चलेगा
उठो निकलो काम पर अपने काम से
रास्ता अँधेरा होगा
दूर पर कही सवेरा होगा
रोशन करनी हैं तु म्हे दुनिया
उठो चलो कदम बढाओ शान से
एक अकेली मत चलो
आपस में तुम मत लड़ो
छा सकती हो तुम दुनिया पर
जब चला दो झुण्ड में तीर कमान से
कारवां होने लगा छोटा
नर नारी की जातका
कन्या को भी जन्मदो
और समूह बनाओ उनका तुम सम्मान से
एकता मैं बल हैं
बल ही बलवान हैं
नारी ही नारी की दुश्मन
झूठ कर दो इस बयां को अपने ज्ञान से .................. नीलिमा
शनिवार, 4 मई 2013
" वक़्त के होंठो पर एक प्रेम गीत "
पेशे से व्यवसायी परन्तु मन से कवि दीपक अरोरा जी का कविता संग्रह " वक़्त के होंठो पर एक प्रेम गीत " मेरे हाथो मैं हैं इसको पढना अपने आप में सुखद अनुभूति हैं प्रेम के भिन्न रूपों पर कविता लिखना और कविता को भीतर से जीना अलग अलग अहसास हैं और इन अहसासों को महसूस किया जा सकता हैं दीपक अरोरा जी की पुस्तक " वक़्त के होंठो पर एक प्रेम गीत " में । हर कविता एक अलग फ्लेवर में पर प्रेम रस से भीगी हुइ बहुत ही अन्दर तक असर करती हैं
" प्रेम की और तुम्हारा बार बार लौटना " या " जिस दिन हम मिले , तुम देखना / मेरी कलाई की खरोंचो और पीठ पर उभर आये कोणो में कितना समय हैं । दोनों में छिपा हुआ हैं / एक त्रिभुज / जिसका एक कोण मैं हूँ , दूसरा तुम !!!/ तीसरा हमें ढूढना हैं ......!""
कवि की अद्भुत कल्पना शीलता को दर्शाता हैं
सबसे अनूठी बात जो मुझे अच्छी लगी कई कविताओ से पहले लिखी एक भूमिका कवि मन की मनोदशा का परिचय देती हैं
""अकेला होना क्या होता हैं / जब तुम्हारे भीतर लोगो की एक भीड़ हो , पर कोई ना हो जो उस पल में तुम्हे चूंटी कट कर बता सके ...कि वह है "" पढ़ते ही ऐसा लगा कि आखिर हर मन क्यों ऐसा अकेला होता भीतर कही .संवेदनाये कितना मुखरित हैं कवी के शब्दों में ।
""अकेला होना क्या होता हैं / जब तुम्हारे भीतर लोगो की एक भीड़ हो , पर कोई ना हो जो उस पल में तुम्हे चूंटी कट कर बता सके ...कि वह है "" पढ़ते ही ऐसा लगा कि आखिर हर मन क्यों ऐसा अकेला होता भीतर कही .संवेदनाये कितना मुखरित हैं कवी के शब्दों में ।
कुछ शब्द मन के भीतर तक भेदते हैं आप देखिये इनको कवि के लफ्जो में
" जिन्हें आप चाहते हैं
वह दखल अंदाज़ नही होते कभी भी
जीवन में आपके ""
वह दखल अंदाज़ नही होते कभी भी
जीवन में आपके ""
कितना बड़ा सच जिसे सब झुठलाना चाहते हैं
" देर रात गये मुझसे
तकिये का आधा हिस्सा तलब करते हैं
एक कोने में सिमटते मैं खुद को डुबाता हूँ
किसी स्वपन में आँखे मूंदते , आँखे खोलते "
तकिये का आधा हिस्सा तलब करते हैं
एक कोने में सिमटते मैं खुद को डुबाता हूँ
किसी स्वपन में आँखे मूंदते , आँखे खोलते "
कितनी खूब हैं न एक एकाकी मन की दशा !!
" आँख मॆ छपा स्वप्न
आधे चाँद सा था
एक गोलार्ध , जिसे चाहिए था समय
अधूरा रहने के लिय भी , कि
वे नही जन्मे थे
ईश्वरीय वरदान के साथ । "
आधे चाँद सा था
एक गोलार्ध , जिसे चाहिए था समय
अधूरा रहने के लिय भी , कि
वे नही जन्मे थे
ईश्वरीय वरदान के साथ । "
कवि मन कितना भावुक हो कर कहता हैं
" अतिरेक में रो ओगे , तो
तकिया इनकार कर देगा आंसू सोखने से "
तकिया इनकार कर देगा आंसू सोखने से "
ओर
" शब्द कह पाते वह सब
जो चुक गया मैं कहते कहते तुम्हे ,तो
सच जानना
मैं नही लिखता कविता कभी ,
केवल कविता सा कुछ उमड़ने पर चूम लेता तुम्हे "
जो चुक गया मैं कहते कहते तुम्हे ,तो
सच जानना
मैं नही लिखता कविता कभी ,
केवल कविता सा कुछ उमड़ने पर चूम लेता तुम्हे "
एक बानगी यह भी
" तुम्हे सुख कहाँ कहाँ से छु जाता हैं पूछुंगा
अगली बार उन सज्जन से मिलते हुए । "
अगली बार उन सज्जन से मिलते हुए । "
अकेलामन कितना अकेला है न
"पूरी रात सुन नी हैं ,अकेले मुझे
फडफडाते पंखो की आवाज़ । "
फडफडाते पंखो की आवाज़ । "
प्रेम की मासूमियत तो देखिये
" प्रेम में कुछ भी तय नही होता
और अचानक आप शुरू कर देते हैं
फूल की पंखुड़िया तोड़ कर फेंकना
मिलेगा, नही मिलेगा बोलते हुए "'
और अचानक आप शुरू कर देते हैं
फूल की पंखुड़िया तोड़ कर फेंकना
मिलेगा, नही मिलेगा बोलते हुए "'
`भाव और व्यंजना शब्दों में देखते ही बनती हैं ....
"गुजरी रात भी नही छीन सकी , मुझसे मेरा तुम्हारा होना !!"
बहुत खूबसूरती से प्रेम को अमरत्व प्रदान करते हैं लफ्ज़
" तुम्हे तो पता हैं न
बोल ही तो नही पाता मैं
पर कह दूँगा इस बार
मुझे जाना ही नही हैं
यह पृथ्वी छोड़कर
जब तक
तुम यहाँ हो
और तुम तो रहोगी ही
क्युकी तुम्हारे होने से ही हैं
पृथ्वी भी पृथ्वी "
बोल ही तो नही पाता मैं
पर कह दूँगा इस बार
मुझे जाना ही नही हैं
यह पृथ्वी छोड़कर
जब तक
तुम यहाँ हो
और तुम तो रहोगी ही
क्युकी तुम्हारे होने से ही हैं
पृथ्वी भी पृथ्वी "
एक शाश्वत सा सच लगती कविता
" प्रेम मैं डूबी स्त्रीयां
प्रेम में अक्सर कविताये नही लिखती "
प्रेम में अक्सर कविताये नही लिखती "
अहसासों की शिद्दत तो देखिये
उम्र न उससे रुकी , ना मुझसे
समय के साथ साथ
उग आये कुछ कोमल हरे पौधे
उसके और मेरे दोनों के आँगन में
हमने समेत लिया उन्हें
अपनी बाहों की वल्गने देकर
प्यार पलता रहा
आँखों में ,सपनो में, दिलो में
रात के सिसकते अन्धेर्रो में
समय के साथ साथ
उग आये कुछ कोमल हरे पौधे
उसके और मेरे दोनों के आँगन में
हमने समेत लिया उन्हें
अपनी बाहों की वल्गने देकर
प्यार पलता रहा
आँखों में ,सपनो में, दिलो में
रात के सिसकते अन्धेर्रो में
ऒर अंत में .............
" साबुत सब पैदा होते हैं अन्तत:टूट जाने पर फिर से जुडा कोई "
एक एक कविता को पढना मानो एक जिन्दगी को भीतर भीतर जीना सही कहाजाता हैं कविता अनायास जन्म नही लेती उसका जन्म होता हैं पीड़ा से दर्द से विरह से और प्रेम कविताये तो या तो पा लेने की ख़ुशी से जन्म लेती हैं या पा ना सकने की कसक से .लेकिन यह कविताये वही भावुक मन लिख सकता हैं जिसने प्रेम को जिया हो गहरे अंतस तक .प्रेम करना और प्रेम को जीना भिन्न भिन्न अवस्थाये हैं और इस पुस्तक का जैसा नाम हैं वैसे ही कविताये ..... सार्थक शीर्षक सार्थक और परिपक्व कविताये ...एक ऐसे पायदान पर खड़ी प्रेम कविताये जिसे हर कोई महसूस करना चाहेगा भाषा बहुत सरल स्वाभाविक सुन्दर बिम्बों के प्रयोग से कविताये जीवंत सी हो उठती हैं भावात्मक और विश्लेषणात्मक शैली कविताओ के मर्म को आसानी से परिलक्षित करती हैं .....
दीपक जी को उनके काव्य संग्रह के लिय हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाय
उनके नए काव्य संग्रह का इंतज़ार रहेगा
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