मंगलवार, 29 जनवरी 2013

प्रार्थना

अभी 
पिछले कुछ बरस तक 
मैं नास्तिक थी 
नही मानती थी 
नही जानती थी 
अस्तित्व को तेरे 

नितांत अपरिचित 
तुम्हारी माया से 
उलझी रहती थी
अपनी मोह माया से

तुमने जिन्दगी की
पहाड़ियों से
घाटियों तक
समंदर से
चोटियों तक
जिन्दगी के सारे
आयाम दिखा दिए

तुमने जो दिया तेरी कृपा
जो न दिया वो अनुकम्पा
जो मेरे लिये सही
वही दिया
मेरे लिए नही सही
नही दिया
मैं हर हाल में तेरी
तेरी मंदिर की जोत मेरी

ओ मेरे रब्बा !!!

ओ मेरे रब्बा !!!
तुम ही तो हो भगवान्
तुम्ही हो खुदा
तुम्ही गुरुज्ञान

आज मेरे रोम रोम में
आलोकित हो तुम
मेरी रग -रग में
प्रकाशित हो तुम

साक्षात् तुम्ही को देखा हैं
साष्टांग तुम्ही को पूजा हैं
दंडवत तुम्ही को चाहा हैं
सच्चे दिल से माना है

बस अब यही अरदास हैं
क्यों दुःख /सुख का
अजीब सा हिसाब हैं
किसी की झोली
खुशियों से भरी
कोई एक मुस्कान
का भी मोहताज हैं
कर दो उस हिस्से की
ख़ुशी का दान
पूजे तुझे हर एक इंसान !!!!

शुक्रवार, 25 जनवरी 2013

तुम स्वतंत्र हो


नारी तुम स्वतंत्र हो 

 तुम छोटी हो अभी !
घर से बाहर नही जाना !!
तुम बड़ी हो रही हो !
बाहर मत जाओ अकेले !!
इतनी बड़ी हो गयी हो !!!
बाहर कैसे जाओगी ?
तुम नयी नवेली  हो !!
अभी बाहर नही जाना !!!
तुम माँ हो तुम बाहर रहोगी !! 
बच्चे क्या सीखेंगे ?
तुम घर रहो !!
बच्चे है न , बाहर जाने को !!
उम्र का यह पड़ाव !
चैन नही इस उम्र में भी !!!
 नारी तुम स्वतंत्र हो 
 जाओ  
आजादी को अनुभव करो 
 वर्जनाओ से ..........

नीलिमा शर्मा 

शुक्रवार, 18 जनवरी 2013

क्रोध!! आक्रोश!!




क्रोध!!
आक्रोश!!
मेरे दिल और 
मेरी आत्मा में 
अंदर तक विद्यमान 
कभी आवेग कम 
तो कभी प्रचंड 
कभी रहती में शांत सी 
तो कभी निहायत उद्दंड 
सब कर्मो का आधार ये 
सब दर्दो का प्रकार ये 
उद्वेग 
जो कारण उग्र होने का 
आवेश 
जो कारण 
उष्ण होने का 
आक्रोश 
करता है अलग 
आवेश 
बनाता हैं अवाक्
क्रोध 
जो घर किये है 
भीतर 

क्रोध 
जो भीतर छिपा है 
हमेशा के लिए 
रोम रोम में 
असहाय 
विकराल रूप में 
मुझे में भी 
तो तुझ में भी 
विवशता उसके हाथ में 
खेलने की 
कभी रुलाता हैं 
तो कभी विध्वंसता 
की तरफ खीचता सा 
कभी पापी 
कभी पागल 
खून से भीगी बारिश 
आंसुओ की रिमझिम सा 
कभी सकारात्मक 
तो कभी नकारात्मक 
अंत में हमेशा रहा हैं खाली हाथ ...
यह क्रोध 
आवेश 
उद्वेग 
आक्रोश 
खून की बारिश 
आंसुओ की बाढ़ 
कोई कुछ न कर पाया 
आज भी है तुम्हारे मेरे भीतर 

दामिनिया आज भी लुट रही हैं 
पूरे जोरो शोरो से ....
और हम गुस्से में हैं .........

मंगलवार, 15 जनवरी 2013

Kumbh kaise nahaoge?


गंगा भी कितनी पावन हैं
कुम्भ का मेला मनभावन है



एक तरफ बेटे का कटा सर
दूसरी तरफ बेटी की लुट्टी आबरू

इक तरफ बाहरी द्दुश्मन पुरजोर
दूसरी तरफ कानून हमारा कमजोर


घर का दुकानदार भूखा मरे
वालमार्ट का तो पेट भरे


माँ /बाप के घर तो अँधेरा हैं
मंदिर में रात को भी सवेरा है


नंगे बदन पर रजाई नही
गरीब की कही सुनवाई नही


मन का मैल तुम्हारे अन्दर
तन तो बना लिया तुमने सुन्दर



अपनों का जरा भी सोग नही हैं
क्या नजरो में तुम्हारी भोग नही हैं ?



क्या तुम समाज का शुभ कर पाओगे
पापी इन्सान कुम्भ क्या तुम नहाओगे ...Neelima Sharma

Aaina

kitni ajnabi si hu mai
कितनी अजनबी सी हूँ मैं 
khud hi khud se
खुद ही ,खुद से 
pahchaan hi nhi paati hu mai
पहचान ही नही पाती हूँ 
ki mai hi hun ye ?
कि मैं ही हूँ यह ?
Jab bhi apne ko 
जब भी अपने को
aaine k saamne paati hu…………
आईने के सामने पाती हूँ ......
kitne sapne kirche ban jaate hai
कितने सपने किरचे बन जाते हैं
kitne hi yatarth tab samne aate hai
कितने ही यतार्थ तब सामने आते हैं
kitne hi kahkahe peecha karte hai
कितने ही कहकहे पीछा करते हैं
tab sab bhul jati hu mai
तब सब भूल जाती हूँ मैं
AAINA is kadar ,kyo ?
आईना इस कदर , क्यों?
ik anjaan ,ajnabi se
एक अनजान , अजनबी से
chehre ko NIVIA bana kar
चेहरे को नीलिमा बना कर
mere samne khara kar deta hai
मेरे सामने खड़ा कर देता हैं
k mai pahchan hi nhi paati
कि मैं पहचान ही नही पाती हूँ
KE YE MAI HI HU…………………..
कि यह मैं ही हूँ :(
नीलिमा शर्मा

शनिवार, 5 जनवरी 2013

कोसी कोसी धूप 
मेरे शहर की 
कोहरे की चादर 
तेरे शहर में 
फिर भी लहजे 
सर्द हैं सबके
क्यों ना ओढ़ ले
गरमजोशी की चादर
अहसासों में / लफ्जों में
सुना हैं .......
रिश्तो में
बर्फ सी जमने लगी हैं . नीलिमा शर्मा
kosi kosi Dhoop
Mere Shahar ki
Kohre ki chadar
Tere shahr mei
Fir bhee
lahze
sard hain sabke
kyu na oudh le
garam joshi ki chadar
ahsaso mei / lafzo mei
Suna hain
Rishto mei
Burf see jamne lagi hain . neelima sharma
सोचा था ! 
तुम लौटोगे तो 
रो दूँगी 
रोज के 
सब हाल 
कह दूँगी
दाल में चीनी
चाय में नमक
सर में होती रहती हैं
हर वक़्त एक धमक
अख़बार अलमारी में
कपडे फ्रिज में
क्या हाल हैं
मेरा तुम्हारे हिज्र में
तुमने मुझको फ़ोन घुमाया
क्या हाल हैं मोटो
कह दुलराया
ठीक हूँ और अच्छी भी
बस इतना ही में कह पायी
झट से रख कर फ़ोन को मैं फिर
रात भर न सो पाई ......................................:(

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

शर्म उदासी को आती नही
जरा सी भी 
कोहरे की तरह 
अड़ियल 
मेरे घर के बाहर खड़ी हैं . 
बंद रखे हैं मैंने
दरवाज़े कसकर
पर खिद्द्कियो से उसके
आने की थाप सुनी हैं ......neelima

Sharam Udaasi Ko
Aati Nhi Jara Si Bhee
Kohre Ki Trah
Adiyal
Mere ghar ke bahar khadi hain
band rakhe hain maine
darwaze kaskar
par khidkiyo se
uske aane ki