बुधवार, 13 मार्च 2013

कविता तो मेरी सांसो में


"एक साँस मेरी "
हाँ !!!
मेरी पहली पुस्तक का नाम हैं 
परन्तु उस में लिखे भाव 
मेरी सांसो का 
जो रिश्ता हैन 
तुम्हारी सांसो से 
उस से संदर्भित हैं 

"कस्तूरी "
मैं महक हैं 
मेरे लफ्जों की 
सरगोशी कर जाते हो 
जो तुम आते जाते 
और पुलकित हो उठता हैं 
मेरा तन मन 

"शब्दों की चहलकदमी "
मेरे लफ्ज़ जब बैचैन हो उठते हैं 
तुम बिन 
और बरस जाते हैं वियोगी होकर 
मेरी आँखों से / भावो से 
और तुम संबल बन 
थाम लेते हो मुझे 
हर राह पर 

"पगडंडियाँ"
छोटे छोटे लफ्जों के रास्ते 
जब मैंने कदम बदाये 
शब्दों के जंगल में 
तुम हाथ थाम कर मेरा 
मुझे मंजिल तक 
ले जाने को आतुर हो 

कितना प्यार है तुम्हे मुझसे यूँ भी 
मेरी साँसें तुम्हारी ऋणी है क्यूँ की
और 
तुम जानते हो न 
नज्म/ग़ज़ल मेरी आँखों में हँसती हैं 
.और कविता तो मेरी सांसो में बस ती हैं Neelima Sharma

("एक साँस मेरी " "कस्तूरी " "शब्दों की चहलकदमी " "पगडंडियाँ"मेरी साँझा काव्य संग्रह के नाम हैं )

सोमवार, 11 मार्च 2013

समझौता


लडकियों
तुमको सिर्फ परी कथाये ही
क्यों सुनाई जाती हैं
बचपन से
तुमको सिर्फ गुडिया/ चौके चूल्हे
का सामान ही मिलता हैं
खिलौनों में
क्यों तुमको राजकुमारी सरीखा कहा जाता हैं
कहानियो में
क्यों सफ़ेद घोड़े पर सवार
राजकुमार आता हैं लेने
सपनो में
जबकि हकीक़त जानती हो तुम
जिन्दगी परी कथा सी नही होती
कोई सफ़ेद घोड़े वाला राजकुमार नही आता
कोई रानी बनाकर नही रखता अपने महल में
जिन्दगी सिर्फ गुडिया जैसे नही होती
समझौता खुद से सबसे पहले करना होता हैं
फिर लोगो के मुताबिक़ ढलना होता हैं
एक अजनबी से रिश्ता जोड़ कर
उनके घर से , परिवार से
रीती-रिवाजों से उनके अपने समाजों से
खुद को जोड़ना होता हैं
इसलिए बचपन से तुमको बहलाया जाता हैं
हाथ में बन्दूक की जगह बेलन पकडाया जाता हैं
भगत सिंह की जगह सिंड्रेला का सपना देखाया जाता हैं ...





http://www.madhepuratoday.com/2013/03/blog-post_8977.html
 —

पगडंडियाँ -2



bhag -2

कवियत्री , कहानीकार ज्योतिषी . किस तरह से परिचय कराये जाये उपासना सिआग जी का   उनका पहला साँझा काव्य संग्रह और जोरदार तरीके से अपनी बात कहने में सक्षम  नवीनतम विषयों का चुनाव करती हैं    "अस्थिकलश" " मन की उड़ान"" प्रेम की सरगम"' मन की मन ही मन में "हो या फिर ' असंयम '

 एक बानगी देखिये इनकी कलम की  

गांधारी का भी तो आचरण 
असंयमित ही था ,
अगर 
अपने नेत्रों पर पट्टी 
ना बांधी होती 
तो क्या ,
उसकी संतान ऐसी 
कुसंस्कारी और दुष्कर्मी 
होती ,
ना ही महाभारत की 
सम्भावना होती .........
अगर संयमित आचरण 
दुर्योधन ने भी किया होता 
तो क्या ,
वह रिश्तों को तार - तार 
करता...!
द्रोपदी को भी तो 
थोड़ा संयम अपनी वाणी 
पर रखना ही था......
आखिर असंयमित वाणी 
ही तो कारण होती है 
महाभारत का...

मिनाक्षी पन्त जी  चाहती हैं के उनके लिखे से कुछ न कुछ सन्देश अवश्य आये  और सफल भी हुई हैं हैं  बहुत उम्दा लिखती हैं 
मिनाक्षी जी अपने  शाब्दो में 
"एक अधूरी  आस'; रिश्ते "पेड़ "" इन्साफ हुआ जरुर था' बहुत उम्दा हैं "सिर्फ एक आह " मन में एक कसक छोड़ जाती हैं 
'
"वोह भाग गयी , वोह भाग गयी 
 हम न कहते थे  वोह भाग जाएगी 
.
.
हाँ सच कहते थे लोग कि  वोह गाँव  से भाग गयी 
 पर सच इतना नही हैं 
 सच तो यह हैं की वोह सिर्फ गाँव  से ही नही 
 बल्कि इस जहाँ से भाग गयी थी 
 अपने नाम का निवाला कम कर 
 पिटा की चिंता को कम करने क लिय के लिए "
बानगी 
  ' आह और वाह ही हैं जिन्दगी ' से 

हर नाकामयाबियो के बाद , बंद मुठ्ठी खोलती 
 एक शक्ति एक विश्वास  का , संचार घोलती "


प्रियंका राठौर  कम उम्र मैं उचे पायदान तक पहुचने की क्षमता रखती हैं  उन की कविताए बहुत गहरे  भाव लिए हैं "अनिश्चिताता "सस्ती  मौत" एक चादर हैं सूनेपन की "गहरे तक सोचने पर मजबूर करती हैं वो लम्हा ' एल अलग ही रंग में गुजर जाता है ....जीवन  एक  बानगी  देखिये ....


मुठ्ठी की फिसलती रेत  सा 
जीवन छूटा जाता है 
 बंधने की कोशिश में  
 बंधन ही बन जाता हैं 
 दीपक की लोउ सा जलता बुझता 
 रंगों बीच  स्याही सा 
जीवन बीता जाता हैं 
 मान की सूनी कोउख सा 
विधवा के हाथ सिंदूर सा 
 जीवन रीता जाता हैं 
बंधने की कोशिश में  
 बंधन ही बन जाता हैं 


 अंकित खरे  मन की बातो को कागज पर उतारने का शौंक रखने वाले प्रतिभावान कवि  हैं ' अंतिम सच ''भूली बिसरी यादो   की    किताब '  ' वक़्त हूँ बदल जाऊँगा '
' अब नही लिखूंगा कोई कविता 'कुहासे की सर्दी और माँ   ' उनके सवेदनशील  होने का परिचय देती हैं  '
' माँ मुझे नजर लग जायेगी , अब क्यों नही समझती तुम ;' पढ़ कर   हर बेटे का मन रो देता हैं 
 'मुंबई बम ब्लास्ट 'पर उनकी कलम ने कहा 

' संवेदनाओं से परे एक बार फिर वोह जख्म दे गये 
 कल तक हस्ते थे जो साथ  आज आँखों में  आंसू दे गये 
 बेबस खड़ी थी जिन्दगी फ़रियाद कर रही थी 
मौत के फ़रिश्ते आये और साथ  अपने ले गये '


"रूमी बग्गा " जैसा नाम वैसा ही ही लिखना उनका 

 ' मेरे हिस्से की नमी '  कोमा से फुल स्टॉप तक का सफ़र '  कोशिश ' ' मुन्तजिर '  बेहतरीन हैं 

'तुम्हारे लफ्ज़ जब  भी मेरे जहन  में चहलकदमी करते हैं 
 तो जुबान खामोश रह कर सलाम करती हैं '


'हर साँस मुझ ही से जीते हो 
और मेरी उम्र की बाते करते हो 
सब्र की आजमाइश न करो 
 इतना परखोगे तो हम टूट जायेंगे '


  
 "नीलम पुरी  " भावो को लफ्जों में पिरोना बखूबी जानती हैं  ' 

चाहे ' माँ'' हो या 'हस्ताक्षर'

कुछ लाइन्स उनकी देखिये कितनी गहरी हैं .............

करते हो बेशुमार प्यार मुझसे / लेकिन मुझे बेवज़ह सताना, रुलाना ,/ तुम्हे अच्छा  लगता हैं ......... 

घर तो लगता अपना ही हैं / पर दीवारों से डर  लगता हैं .......

चूम लेते हो मेरे शानो को तुम जब / और शर्म से मेरा मर जाना / तुम्हे अच्छा लगता हैं 

आती हैं अदाए उसे सौ सौ मुझे सताने की /और फिर देखो कैसे रूठ कर मुझे मनाती हैं 

तुम ठहरे रिश्तो के शहंशाह / मैं तो अहसासों का पुतला हूँ 




'रजनी नैय्यर मल्होत्रा जी'  कहानीकार भी हैं तो काव्य की अनेक विधाओ की ज्ञाता भी ...
 मंच पर सस्वर  काव्य पाठ में निपुण  अपने लफ्जों से बयां करती हैं ....


 पुन्य आत्मा बनकर अब, शैतान चीखता हैं 
 आती नही हैं सूरत ,पहचान में हर किसी की 
आपकी जिन्दगी की सुरीली साज़ हूँ /क्या हुआ जो मैं लड़की बेआवाज़ हूँ 


बहरही हैं हवा , वादी में आतंकी 
 सरहद क्या पूरा मुल्क ` खतरे के निशाँ पर हैं 


 यु तो कुछ देर की मुलाकात थी उनसे मेरी 
 दिल में एक खास जगह बना गया कोई .


 उनके शेर अक्सर विभिन्न जगह देखे जाते हैं हर आम /खास की पसंद बनकर 





कमल शर्मा जी  हरयाणवी  फिल्मो के अदाकार , गीतकार ,संवाद लेखक  संगीतकार ,गायक  अनेक प्रतिभाओ के धनी हैं 

हिंदी उर्दू लफ्जों का प्रयोग इनकी कविताओ में बहुतायत से हुआ हैं 
 कुछ लाइन्स देखिये इनकी लिखी ..........

यह मेरी सादगी हैं या मेरी कोई बेवकूफी हैं 
लूटा था जिसने मेरा घर , उसको ही दरेबां कर दिया 
~~ 
क्या  पूछते हो   तुम क्या चीज है ग़ज़ल 
 गमख्वार दिमागों की अजीज हैं ग़ज़ल 
~~~~ 
किस किस को जहाँ में खुश रखूं 
जो करता हैं हिकारत करने दो 
~~ 


शेफाली गुप्ता किशोरावस्था   से ही लफ्जों से खेलने लगी थी कविताओ / कहानियो का वाचन करना इनका शौंक हैं 

 इनकी लिखी कविता 'तुम हो', 'जानते हो मुझे ?',  ' तुम्हारे लिय "  सहजता से भावो को व्यक्त करने में सफल हुयी  हैं 
 " पाना- खोना ' से एक बानगी देखिये 
 '
 " जो पाया नही कभी 
 आज खो दिया सा लगता हैं 
~ जेहन से 
अब मन खाली सा लगता हैं "'

 'तेरे बिना " मैं शेफाली कहती हैं ....
 तेरे बिना कविता की शक्ल  / नही बनती / शब्द में आत्मा कहाँ से लाऊ ?

एक और मेरी पसंदीदा लाइन्स 

   सांसो में उठते तूफ़ान से लेकर / धड़कन में बसा उन्माद हो तुम 
 कल तक नीले आसमान का विस्तार थे तो / आज  इन्ही के बादलो का  स्याह रूप भी तो तुम हो 




अंजू अनु चौधरी  किसी परिचय की मोहताज नही  संपादन/ लेखन की अनेक विधाओ से जुडी  अंजू की काव्यसंग्रह को पुरुस्कृत भी किया गया हैं  कुशल संपादन में कई किताबे ला चुकी अंजू जी की कलम जीवन को खुले दृष्टिकोण से देखती हैं  इस पुस्तक के  तीन संपादको में से एक  अंजू  दिल की आवाज़ को लफ्जों में पिरोती हैं  । उनकी लम्बी कविता "टूटी -फूटी जिन्दगी "" परी  ( ममतामयी माँ")" अहसासों के बहुत करीब हैं  'मैं दीप हूँ "    एक आत्मकथा सी हैं दिए की ... 

 "उम्मीद से" की कुछ पंक्तियाँ देखिये 

 एक उम्मीद जब टूटती हैं तो टूट जाता हैं यह मासूम सा दिल 
जो सजाने लगा था, कुछ हसीं सपने इस जिन्दगी के 
 और सपने जब बदलते हैं हकीक़त में  तो नाउम्मीदी कादामन  ही  हाथ लगता हैं 
 यह जानते हुए भी कि

,,......
 मैं खुद को मिटा कर भी उन्हें पूरा नही  करसकती 
 और अगर पूरा करती हूँ उन सपनो और उम्मिद्दो को 
 तो खुद से ही टूट कर  बिखर जाती हूँ 
 अपने ही भीतर 
 खुद को खुद से अंत तक 
 जोड़ने के लिय 




रंजू (र्रंजना ) भाटिया कविता लेखन के साथ साथ बाल /नारी साहित्य लेखन से भी जुडी हैं  एक समीक्षक के रूप में उनका नजरिया बहुत ही पैना हैं   अपनी पुस्तकों के लिय 
 अनेक पुरूस्कार विजेता रंजू  जी का लिखा हर दिल को अपने करीब  का लगता हैं . उनके हर लफ्ज़ से एक जुडाव सा महसूस होता हैं ..  " बहुत दिन हुए " में रंजू जी कहती हैं ."  एक ख़त लिखना हैं मुझे / उन बीते हुए लम्हों / वापिस लाने के लिय /बहुत दिन हुए यूं दिल ने / पुराने लम्हों को जी के नही देखा ।  " आधा अधुरा '  हो या " परिवर्तन" सहजता से भावो का संप्रेक्षण करती हैं 
एक बानगी देखिये " रिश्तो की स्व मौत " से ........ 
  जनम लेने से पहले / सांसो के तन से जुड़ने से पहले /  ना जाने कितने रिश्ते / खुद -ही  -खुद जुड़ जाते हैं 
 बांध जाते हैं कितने बंधन / इन अनजान रिश्तो से / 
~~~ 
 बोझ बने यह रिश्ते / आखिर कब तक यूं ही / णीभःआआटेएए जायेंगे  सोचती हूँ कई बार /
 आखिर क्यों नही / इन बोझिल रिस्श्तो को 
 हम अपनी स्व मौत मर जाने देते ......

 एक बानगी और ......
 तुम्हे मैंने जितना जाना / बूँद बूँद ही जाना / तुम वह नही जो दीखते हो .


कितना शाश्वत सच आज का कह दिया न 





 मुकेश कुमार सिन्हा जी  सरल शब्द्दो में रोजमर्रा  के जीवन में भी काव्य तलाश लेते हैं   नारी की मानसिक दशाको दर्शाती इनकी कविता ' ए  भास्कर"  समसामयिक हैं "पोस्टर " में बचपन को याद करते मुकेश कभी नेताओ को  ' वोटो के भिखारी "  की तरह देखते हैं   
 परन्तु झकझोर डालती हैं इनकी कविता " लैंड क्रूजर का पहिया '

दूर पढ़ी थी / सफ़ेद कपडे में ढकी लाश / पर मीडिया की ब्रेकिंग न्यूज़ / मैं नही थी, मन सुख की मैया  या उसका इंटरव्यू 
टी . आर . पी  कहाँ बनती हैं / भूखी बेसहारा माँ  से / इसलिय टी . वी . स्क्रीन पर / चिल्ला रहे थे / न्यूज़ रीडर 
लैंड क्रूज़र  के नीचे / सी पी  के व्यस्त चौराहे पर  / गया मेहनत काश नौजवान 
 और बार बार सिर्फ देख रहा था स्क्रीन पर / चमकता लैंड क्रूज़र  व्  उसका निर्दयी पहिया 

माँ की फ़िक्र को लफ्जों में बखूबी  ढाला हैं इन्होने 
 " मैया में '
 और माँ  को कहते हैं " 
 ' मैं सच्ची में बड़ा हो गया / मेरा मन कहता हैं 
 एक बार  तू मेरे गोद में सर रखकर देख /
 एक बार मेरी बच्ची बनकर देख 
  सच में एक उम्र मैं माँ- बाबा भी बच्चे ही हो जाते हैं .



अंत में नीलिमा शर्मा  यानी  मेरी कविताएं 



 अब मैंने कैसा लिखा यह तो आप सब मित्र ही बता सकते हैं परन्तु लफ्जों से खेलना   मेरी आदत सी बन गयी हैं कभी लफ्ज़ मेरा कहा मान लेते हैं तो कभी नासमझ हो मुझे परेशान भी कर देते हैं

दिल्ली बलात्कार कांड पर निर्भय (दामिनी) की मौत ने भीतर तक झकझोर दल और लिखा मैंने 

 " तुम मेरी कुछ भी तो नही थी फिर भी मैंने  तुम्हारे दर्द को सहा प्रसव पीड़ा सा '


परिवारों में बुजुर्गो की दशा पर मेरा मन पसीज उठता हैं  और  माँ के रोकने पर भी जब बेटी मायके में नही रूक पाती तो मेरी कलम कह उठी    .. " माँ कितनी भी उम्रदराज़ हो जाए / पढ़ लेती हैं बेटी के अनबोले ज़ज्बातो को " कितना मुश्किल होता हैं न माँ के घर से यूं लौट कर आना  / माँ रूकने को कहे और बेटी बनाये झूठा बहाना '

  पग्दंद्द्दियो पर चलते चलते मेरे लफ्ज़   सूरज मुखी और सूरज के प्यार को बताते हुए नाम की महिमा भी बखान कर जाते हैं सरहद पर बैठे  सैनिक की मानसिक  पीड़ा  से भी अनजान नही  रहे मेरे लफ्ज़   ..............


. एक सिपाही हूँ 
मेरा जीवन आज है 
कल हो न हो
या बरसो तक हो 
बस यही सोच
हर रात तुझे आभास समझ कर 
लिपट जाता हूँ ......
जी लेता हूँ पलभर में 
उस हर जुनूनी लम्हे को ...
जो तुने कभी सोचा ही नही 
और मैंने कभी कहा भी नही



 और जब मेरे लफ्ज़ नाराज हो जाते हैं मुझसे तो मेरी हालत ऐसे होती हैं .......
आज में कुछ लिखना चाहती हु 
पर क्या?
यह नही समझ प् रही हु 
ओर किसे?
यह भी नही जानती हूँ .
कोई भी तस्वीर
मेरे सामने नही है
चेहरे आते है ,चले जाते है
कागज पर आरही /तिरछी लकीरों से
कुछ अस्पष्ट से शब्दों से
एक अक्स बनती हूँ
फिर खुद पर
खुद ही से झुंझला जाती हूँ
पता नही
क्या बोझ सा दिल पर हैं
जो कागज पर नही उकरता है
अजीब सी घुटन
बैचैनी
जैसे मेरे भीतर
कुछ जल सा रहा हैं
पर क्या?
इस झल्लाहट को
में बयां नही कर पा रही हु
पर में कुछ लिखना छह रही हु
पता नही क्या लिखना छह रही हु ?



बहुत बहुत धन्यवाद आप सबका मेरी नजर से पगडंडियाँ पुस्तक पढने का ...


 हम सब एक साथ अपनी अपनी पगडंडियाँ पार करते हुए  मंजिल की तरफ बढे ऐसे शुभकामना हैं .. ......
 यह मेरी पहली समीक्षा हैं  सभी साथी बहुत अच्चा लिखते हैं फिर भी अगर उनकी कविताओ की समीक्षा करने मॆ मुझसे कोई त्रुटी हो गयी हो तो क्षमा चाहती हूँ 

 आपना कीमती समय देने के लिय धन्यवाद ......................... 


धन्यवाद रश्मि प्रभा जी का जिन्होंने इतना खूबसूरत सम्पादकीय  लिखा .हम सब रचनाकारों की हौसला अफजाई की 


धन्यवाद शैलेश जी का . जिन्होंने इतने कम समय में पुस्तक का प्रकाशन एवं मुद्रण  किया . हम सब रचनाकारों को एक मंच दिया 

गुरुवार, 7 मार्च 2013

शुभ महिला दिवस


जानती हूँ तुम न होते तो मैं भी न होती
पर मैं न होती तो तुम भी न होते क्यों भूल जाते हो
हम पूरक हैं एक दुसरे के .,कोई प्रतिद्वंदी नही
क्यों बेफिजूल अपने महान होने का दंभ भर जाते हो


आज भी जब होते हो जब कष्टों में
क्यों मूक होकर माँ को आँखों में भर लाते हो
आज भी होते हो जब खुशियों में
माँ की फोटो आगे आखो से सर झुकाते हो


सुकून महसूस करते हो प्रिय को सीने से लगा कर
फिर उसी को झूठे अहम् की बलि चड़ा जाते हो
जानते हो नारी जरुरत हैं जिन्दगी की
फिर क्यों खामख्वाह कागजी जहाज उड़ाते हो


सब मर्द नही देते दर्द जानती हैं नारिया भी
जब पापा बनकर तुम उनकी जिन्दगी मैं आते हो
क्यों हवस के पुजारी बनकर लूट'ते हो उनकी अस्मत
क्यों उनकी नफरतो का, आक्रोश का सामान बन जाते हो

हर नारी नही माँ जैसे प्यारी हर कोई मानता हैं
कुछ नारियो को भी पुरुषो को तड़पाने में मजा आता हैं
कुछ होती हैं इस पृथ्वी पर बोझ स्वरुप अत्याचारी
अपनी कुठाओ पर विजय पाकर क्यों नही मानव बन जाते हो


नारी सृजनकार हैं नारी पालन हार हैं सृष्टि की
शारीरिक जरूरतों के लिय प्रयोग कर तुम उसे
"बेटे ही हो " का बीज बो जाते हो
फिर कन्या भ्रूण ह्त्या करवाते हो


तुम पूजनीय हो तुम आदरणीय हो
तुम प्रियतम हो , तुम प्रियवर हो
364 दिन क्यों तुम्हारे इस दुनिया में
हैप्पी एक दिन ही हमें क्यों कह जाते हो

हाथ थामो , दामन थामो या थामो हमें कंधे से
प्यार का हाथ मिले तो नारीबंधी रह जाए खूंटे से भी
तिरस्कार नही सत्कार -.सम्मान उसे अब देना होगा
सिर्फ एक दिन को शुभ महिला दिवस क्यों कह कह जाते हो


सब नारियो को अपने आत्मसम्मान के साथ जीने का हक मिले .. इस शुभकामना के साथ ...... नीलिमा शर्मा

"पगडंडियाँ"



"पगडंडियाँ"28 काव्य सुगंधियो का अलग अलग पगडण्डी से चलकर एक रास्ते पर आना . जब से   मुकेश सिन्हा , अंजू चौधरी एवं रंजना भाटिया स्वर सम्पादित  पुस्तक हाथ में  हैं नित नए रंग-रस से सरोबार  मेरा मन मोह रही हैं  हर पगडण्डी  का अपना विस्तार अपनी परिधि   परन्तु मंजिल एक .  हर नयी पगडण्डी का अपना   अनोखा  सफ़र ..
 सबसे पहले रचनाये हैं  
डॉ वंदना सिंह जी की   
बहुत खूब लिखती हैं वंदना जी  ,  सपनो की बेल से , ' यह लब मुस्कराए हैं""  दिल की लगन से" तो 'व्याकुलता  भी हारी "हैं सब कविताये सुंदर शब्द संयोजन लिय प्रभावित करती हैं   क्या खूब कहा वंदना जी ने  
" मेरे मशगले  कभी किसी को रास ना  आसके 
< मैंने हर ताल्लुक बात से नही जज्बात से  जिया " 

 मेरे अश्रर में हैं आग , ना बुझाने को पानी ढूढिये 
 इन्ही से लाऊंगी सैलाब , मुझसी दीवानी न  ढूढिये


 अब पढ़ते हैं मिनाक्षी मिस्श्रा तिवारी को  
पेशे से  इंजिनियर  शब्द्दो की धनी   "कान्हा " की प्रेम भक्ति से सरोबार  हैं  उनकी कविताये  " यकीन  "एवं "अनकही "बहुत ही प्रभावशाली हैं  उनके ही शब्द 
" जब जब मौन को विजय करना चाहा हैं  
शब्द फूट फूट कर निकले हैं  """
 उनके रचनात्मक होने  का परिचय देते हैं 
कभी चहकती चिड़िया जैसी / कलरव गुंजन करती थी / आज रूंधी रूंधी आवाज हैं / कोशिश  फिर भी खुश रहने की / रूठ कर फिर मन ने की / आज उसकी यही बिसात हैं .बहुत खूब बयानी एक लड़की की कहानी मिनाक्षी की कलम से 

 रेखा श्री   वास्तव जी किसी परिचय की मोहताज नही  उनकी कविताए  " दर्द किसी सूने घर का < कामना ,दोहरा सत्य  बहुत ही उम्दा हैं    कितना सुन्दर कहा उन्होंने " जो जीता हैं किताबो में वोह कभी तनहा नही होता " उनकी कविता " कैसी दीवाली _ कौन सी लक्ष्मी " झाक्झोर्र्ती हैं भीतर तलक  बच्चो के दूर जाने का दर्द उनकी कलम कुछ यूं बयां करती हैं 
 "बसाया था यह घर दो से फिर हम चार हुए 
 फिर दो में सिमट गये तो दिल सिहर गया 
 आशियाँ तो बनाया था तेरे ही लिय मैंने 
जिन्दगी पीला इस में  यह ख्वाब ही बिखर गया !"

रागिनी मिश्र जी  बहुतही सुंदर ग़ज़ल लिखती हैं साथ ही उनकी छंद मुक्त कविता भी सराहनीय हैं विभीषण एवं स्पर्श अनोखी सी हैं ... क्या खूब कहती हैं रागिनी जी 
" बहुत सम्हाल हैं मुझको , ए  जिन्दगी तूने .. 
आ आज तू , मेरी बाहों का सहारा ले ले ....
जब भी टूटी हूँ तेरे सामने ही बिख्ररी हूँ 
 समझ कर जी की मेरी 
 एक इशारा ले ले !!
.."" बहुत ही उम्दा  शेर इनकी सभी गजलो  के ।

सोनिया  बहुखंडी गौड़ जी की  कविताए कही अकेलेपन से सरोबार तो कही आपने से बाते करती सी बखूबी अपने भावो से न्याय करती हैं . ' मेरे संवादों में  प्रियतम  तुम ही बस तुम छाए '
कहती सोनिया जी शब्दों के विरह- प्रवाह में बह जाती हैं .
."यादे काला  नाग बन गयी 
 डसने को बेवक्त चली आती हैं 
 दिल जब भी टूट'ता हैं मेरा 
 टीस आँखों मैं नजर आती हैं "

 रीता मधु शेखर  बहुमुखी प्रतिभा की धनी कविता की हर विधा मैं पारंगत हैं इनकी  कविता " शिव का नटराज अवतार " पढना एक आलौकिक अनुभव हैं 
और क्या खूब बयां किये जज्बात इन्होने  जो हर नारी को अपने ही जज्बात लगते हैं "
"" शिकायत कर नही पाती खिलाफत कर नही पाती 
 उसे सहने की आदत हैं  बगावत कर नही पाती 
जमाने  का  कहर सहना गवारा भी नही उसको 
 जवाबो को पलटने की हिमाकत कर नही पाती
 धरोहर मैं मिली संदूक भर के सीख जो उसको 
 लुटाती हैं खुले हाथो रियायत कर नही पाती 

अनुपमा त्रिपाठी  जी  की   सुन्दर   शब्दांकन लिय लम्बी कविता  " बड़ी ही कठिन हैं डगर पनघट की ?  अद्भुत हैं  गहरे भावो से सजी इनकी कविताए  अनोखी छाप छोडती हैं 
 खासकर " विषयगत मद में   डूबा
चिन्मय विमुख 
 क्यों छुपा हुआ हैं इंसान 
 हर समय एक नकाब में 
 मर्म का भेद 
   समझ समझ के भी 
 कठिन गणित सा  
कुछ समझ ना आये 
 कैसे समझू मैं ?

अमित आनंद  इनकी कविताए ही इनका परिचय दे देती हैं  खुद के बारे में कहते हैं  " मैं सार भी हूँ सन्दर्भ भी " और सही हैं इनकी हरेक कविता गहरे तक भेदती हैं चाहे " मासूम " हो  या " खाली बर्तन " इनकी हर कविता समाज  से जुडी होती हैं    और समसामयिक भी 
 " अंजुरियों से चदाये जाते हैं 
 मंदिरों  में 
 तन और पेट काट कर 
प्रसाद/फूल/सिक्के/धन 
 मुठ्ठियों में भींच कर  
 उन्हें भोग लगाया जाता हैं 
 आम तौर पर 
 पुजारी / पण्डे 
 पाप नही करते 

 पेशे से इंजिनियर स्वभाव  से लेखक   चिन्तक  कवि   कुमार राहुल तिवारी    की पैनी दृष्टि आस- पास की घटनाओ को  अपने शब्दों में पिरोकर  ' गुब्बारों में अंतर "करती  "दशहरे का रावण "" बंधुत्व ' भाव से     "केवल  एक पृष्ट की" कामना करती  हैं और उनकी कलम कामना  करने लगती हैं " 
"ऐ  दुनिया तेरे रंग अजीब 
 तेरे ढंग अजीब , सब कुछ अजीब 
 इस परिवर्तन शील दुनिया में 
 कुछ रिश्तो को तो रहने दो सिथर  "

 धीर गंभीर स्वभाव  के गुरमीत सिंह जी  अपने भीतर उठते अंतर्द्वंदो को जब लफ्जों में बयां करते हैं तो लफ्ज़ बोलने लगते हैं '" पत्थर के सनम'हो या' नश्तर"  या" ख्वाब तेरे '
 एक एक शेर दिल की गहराई बयां करता हैं  कितना सही लिखा इन्होने 
"गुफ्तगू के रास्ते , ना जाने कब खवाबो में उतर गये
 यादी का एक झोंका आया , खुशबू से बिखर गये  
 मीत आकेले में मुस्कराने की सौगात देकर 
 हमें तनहा छोड़ , कारवां संग गुजर गये !"


 गुंजन श्री वास्तव जी       कितना अच्छा लगा आपको पढना  जैसे खुद से रूबरू होना .... लफ्ज़ आपके रहे और जुडाव हमने भी महसूस किया उनसे  चाहे  "जदोजहद "हो या 'एक खयाल 
 "जिज्ञासा" हो या' आमंत्रण "
 मासूमियत तो देखिये लफ्जों की ..
" जब मैं  बहुत कुछ कहना चाहती हूँ 
 तो खामोश रह जाती हूँ 
 चुप रहती हूँ तो तुम टोक देते हो 
शरमा जाती हूँ तो तुम हंस देते हो "

अपने आप से बाते करने वाली खुद में खुश हो जाने वाली गुंजन अग्रवाल कभी सोचती हैं " ना जाने कैसा था वोह मन " तो कभी ' लाल चमड़े से मधे  छोटे से डिब्बे " में खो जाती हैं  उम्र को दरकिनार कर उनके भीतर जीती एक किशोरी   पिस्टल  भी चलाना चाहती हैं तो बाइक  भी और "डायरी के आखिरी पन्ने पर ' लिखते लिखते  "वोडका के शॉट "भी लगाती हैं 
 " बहुत इतराते हो न तुम !
 देखना एक दिन तुम्हे भी 
 वोडका शॉट्स  बनाकर पी जाऊंगी 
 जिस्म से लेकर रूह तक जिन्द्दगी की ,आखिरी घूँट के साथ 
 मरने से बस एक पल पहले ?"


 नीता पोरवाल जी की भाषा शैली बहुत ही  विश्लेष्णात्मक हैं " खिड़की से चाँद को झांकते  देख "  " मार्च की "" सुबह सुबह " " खिडकियों की झिर्रियो सेझांकते  'कैनवास "पर उनके शब्द  एक चित्र  उकेर देते हैं  "बेसाख्ता  जिद्दी कोहरा / हाथ बाधा कर सहेजने की कोशिश  जो करती हूँ / हाथो की लकीरों में नमी छोड़ जाता हैं / और महसूस होती रहती हैं  मुझे / तुम्हारी बातो की छुवन ।

बोधमिता  जी की रचनाये    जीवन के अनछुए पहलू भी कविता में शामिल करती हैं  इन्देर्धनुष से रंग व्याकुलता और बेबसी बखूबी बयां करती हैं भावो को सुन्दर शब्संयोजन से सजी " घात' में पतंग को बेटी की तरह  प्रस्तुत किया हैं जो की बहुत ही उम्दा हैं अपने श्याम से उनका प्यार कितनापावन  हैं  
देखिये एक बानगी 
सांवली सी सूरत में / मोहिनी मूरत में/ श्याम तुम जचते  हो  अधरों की हसी से / बातो की मस्ती से / लम्बे लम्बे बालो में / तिरछी कलि आँखों में / श्याम तुम जंचते हो 

मुकेश गिरी स्वामी जी की कविते सहज सरल सी भावो  का संप्रेक्षण करती हैं ...." सितमगर  बन जाओ हक हैं तुमको" लिखकर नाम मेरा मिटा कर तो देखिये " अच्छी कविताएं हैं 
नायिका की तारीफ़ में तो उनके पास शब्द ही कम पढ़ गये ....  आँखे तेरी झरने सी/ खुशिया उस में बहती हैं जैसे/ सूरज लालिमा को तरसे / लाली लबो में बसी हो जैसे 
 /खूबसूरत हो हाँ खूबसूरत हो / खिला कमल हो जैसे / कैसे तेरी   तारीफ़लिखू  /  शब्द कम हो गये हो जैसे 
कमश ........

 कोई कमी यदि है तो पुस्तक में नहीं समीक्षा में होगी.....ये मेरी पहली समीक्षा है




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