क्रोध!! आक्रोश!!
क्रोध!!
आक्रोश!!
मेरे दिल और
मेरी आत्मा में
अंदर तक विद्यमान
कभी आवेग कम
तो कभी प्रचंड
कभी रहती में शांत सी
तो कभी निहायत उद्दंड
सब कर्मो का आधार ये
सब दर्दो का प्रकार ये
उद्वेग
जो कारण उग्र होने का
आवेश
जो कारण
उष्ण होने का
आक्रोश
करता है अलग
आवेश
बनाता हैं अवाक्
क्रोध
जो घर किये है
भीतर
क्रोध
जो भीतर छिपा है
हमेशा के लिए
रोम रोम में
असहाय
विकराल रूप में
मुझे में भी
तो तुझ में भी
विवशता उसके हाथ में
खेलने की
कभी रुलाता हैं
तो कभी विध्वंसता
की तरफ खीचता सा
कभी पापी
कभी पागल
खून से भीगी बारिश
आंसुओ की रिमझिम सा
कभी सकारात्मक
तो कभी नकारात्मक
अंत में हमेशा रहा हैं खाली हाथ ...
यह क्रोध
आवेश
उद्वेग
आक्रोश
खून की बारिश
आंसुओ की बाढ़
कोई कुछ न कर पाया
आज भी है तुम्हारे मेरे भीतर
दामिनिया आज भी लुट रही हैं
पूरे जोरो शोरो से ....
और हम गुस्से में हैं .........
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंआपकी पोस्रट के लिंक की चर्चा कल रविवार (20-01-2013) के चर्चा मंच-1130 (आप भी रस्मी टिप्पणी करते हैं...!) पर भी होगी!
सूचनार्थ... सादर!
अंतिम पंक्तियाँ
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जबरदस्त भडास
और हमारे गुस्से से फर्क किसे पड़ता है ? क्यूंकी दामिनियाँ तो आज भी लूट रही हैं और न जाने कब ताल चलेगा उन लुटेरों और शैतानो का यह तांडव...और हम गुस्साते रहेंगे....
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...
जवाब देंहटाएंसशक्त रचना नीलिमा जी...
अनु
shukriya shastree jee ,anu,Dabbu mishra jee
जवाब देंहटाएंपिछले २ सालों की तरह इस साल भी ब्लॉग बुलेटिन पर रश्मि प्रभा जी प्रस्तुत कर रही है अवलोकन २०१३ !!
जवाब देंहटाएंकई भागो में छपने वाली इस ख़ास बुलेटिन के अंतर्गत आपको सन २०१३ की कुछ चुनिन्दा पोस्टो को दोबारा पढने का मौका मिलेगा !
ब्लॉग बुलेटिन के इस खास संस्करण के अंतर्गत आज की बुलेटिन प्रतिभाओं की कमी नहीं (23) मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !