" वक़्त के होंठो पर एक प्रेम गीत "
पेशे से व्यवसायी परन्तु मन से कवि दीपक अरोरा जी का कविता संग्रह " वक़्त के होंठो पर एक प्रेम गीत " मेरे हाथो मैं हैं इसको पढना अपने आप में सुखद अनुभूति हैं प्रेम के भिन्न रूपों पर कविता लिखना और कविता को भीतर से जीना अलग अलग अहसास हैं और इन अहसासों को महसूस किया जा सकता हैं दीपक अरोरा जी की पुस्तक " वक़्त के होंठो पर एक प्रेम गीत " में । हर कविता एक अलग फ्लेवर में पर प्रेम रस से भीगी हुइ बहुत ही अन्दर तक असर करती हैं
" प्रेम की और तुम्हारा बार बार लौटना " या " जिस दिन हम मिले , तुम देखना / मेरी कलाई की खरोंचो और पीठ पर उभर आये कोणो में कितना समय हैं । दोनों में छिपा हुआ हैं / एक त्रिभुज / जिसका एक कोण मैं हूँ , दूसरा तुम !!!/ तीसरा हमें ढूढना हैं ......!""
कवि की अद्भुत कल्पना शीलता को दर्शाता हैं
सबसे अनूठी बात जो मुझे अच्छी लगी कई कविताओ से पहले लिखी एक भूमिका कवि मन की मनोदशा का परिचय देती हैं
""अकेला होना क्या होता हैं / जब तुम्हारे भीतर लोगो की एक भीड़ हो , पर कोई ना हो जो उस पल में तुम्हे चूंटी कट कर बता सके ...कि वह है "" पढ़ते ही ऐसा लगा कि आखिर हर मन क्यों ऐसा अकेला होता भीतर कही .संवेदनाये कितना मुखरित हैं कवी के शब्दों में ।
""अकेला होना क्या होता हैं / जब तुम्हारे भीतर लोगो की एक भीड़ हो , पर कोई ना हो जो उस पल में तुम्हे चूंटी कट कर बता सके ...कि वह है "" पढ़ते ही ऐसा लगा कि आखिर हर मन क्यों ऐसा अकेला होता भीतर कही .संवेदनाये कितना मुखरित हैं कवी के शब्दों में ।
कुछ शब्द मन के भीतर तक भेदते हैं आप देखिये इनको कवि के लफ्जो में
" जिन्हें आप चाहते हैं
वह दखल अंदाज़ नही होते कभी भी
जीवन में आपके ""
वह दखल अंदाज़ नही होते कभी भी
जीवन में आपके ""
कितना बड़ा सच जिसे सब झुठलाना चाहते हैं
" देर रात गये मुझसे
तकिये का आधा हिस्सा तलब करते हैं
एक कोने में सिमटते मैं खुद को डुबाता हूँ
किसी स्वपन में आँखे मूंदते , आँखे खोलते "
तकिये का आधा हिस्सा तलब करते हैं
एक कोने में सिमटते मैं खुद को डुबाता हूँ
किसी स्वपन में आँखे मूंदते , आँखे खोलते "
कितनी खूब हैं न एक एकाकी मन की दशा !!
" आँख मॆ छपा स्वप्न
आधे चाँद सा था
एक गोलार्ध , जिसे चाहिए था समय
अधूरा रहने के लिय भी , कि
वे नही जन्मे थे
ईश्वरीय वरदान के साथ । "
आधे चाँद सा था
एक गोलार्ध , जिसे चाहिए था समय
अधूरा रहने के लिय भी , कि
वे नही जन्मे थे
ईश्वरीय वरदान के साथ । "
कवि मन कितना भावुक हो कर कहता हैं
" अतिरेक में रो ओगे , तो
तकिया इनकार कर देगा आंसू सोखने से "
तकिया इनकार कर देगा आंसू सोखने से "
ओर
" शब्द कह पाते वह सब
जो चुक गया मैं कहते कहते तुम्हे ,तो
सच जानना
मैं नही लिखता कविता कभी ,
केवल कविता सा कुछ उमड़ने पर चूम लेता तुम्हे "
जो चुक गया मैं कहते कहते तुम्हे ,तो
सच जानना
मैं नही लिखता कविता कभी ,
केवल कविता सा कुछ उमड़ने पर चूम लेता तुम्हे "
एक बानगी यह भी
" तुम्हे सुख कहाँ कहाँ से छु जाता हैं पूछुंगा
अगली बार उन सज्जन से मिलते हुए । "
अगली बार उन सज्जन से मिलते हुए । "
अकेलामन कितना अकेला है न
"पूरी रात सुन नी हैं ,अकेले मुझे
फडफडाते पंखो की आवाज़ । "
फडफडाते पंखो की आवाज़ । "
प्रेम की मासूमियत तो देखिये
" प्रेम में कुछ भी तय नही होता
और अचानक आप शुरू कर देते हैं
फूल की पंखुड़िया तोड़ कर फेंकना
मिलेगा, नही मिलेगा बोलते हुए "'
और अचानक आप शुरू कर देते हैं
फूल की पंखुड़िया तोड़ कर फेंकना
मिलेगा, नही मिलेगा बोलते हुए "'
`भाव और व्यंजना शब्दों में देखते ही बनती हैं ....
"गुजरी रात भी नही छीन सकी , मुझसे मेरा तुम्हारा होना !!"
बहुत खूबसूरती से प्रेम को अमरत्व प्रदान करते हैं लफ्ज़
" तुम्हे तो पता हैं न
बोल ही तो नही पाता मैं
पर कह दूँगा इस बार
मुझे जाना ही नही हैं
यह पृथ्वी छोड़कर
जब तक
तुम यहाँ हो
और तुम तो रहोगी ही
क्युकी तुम्हारे होने से ही हैं
पृथ्वी भी पृथ्वी "
बोल ही तो नही पाता मैं
पर कह दूँगा इस बार
मुझे जाना ही नही हैं
यह पृथ्वी छोड़कर
जब तक
तुम यहाँ हो
और तुम तो रहोगी ही
क्युकी तुम्हारे होने से ही हैं
पृथ्वी भी पृथ्वी "
एक शाश्वत सा सच लगती कविता
" प्रेम मैं डूबी स्त्रीयां
प्रेम में अक्सर कविताये नही लिखती "
प्रेम में अक्सर कविताये नही लिखती "
अहसासों की शिद्दत तो देखिये
उम्र न उससे रुकी , ना मुझसे
समय के साथ साथ
उग आये कुछ कोमल हरे पौधे
उसके और मेरे दोनों के आँगन में
हमने समेत लिया उन्हें
अपनी बाहों की वल्गने देकर
प्यार पलता रहा
आँखों में ,सपनो में, दिलो में
रात के सिसकते अन्धेर्रो में
समय के साथ साथ
उग आये कुछ कोमल हरे पौधे
उसके और मेरे दोनों के आँगन में
हमने समेत लिया उन्हें
अपनी बाहों की वल्गने देकर
प्यार पलता रहा
आँखों में ,सपनो में, दिलो में
रात के सिसकते अन्धेर्रो में
ऒर अंत में .............
" साबुत सब पैदा होते हैं अन्तत:टूट जाने पर फिर से जुडा कोई "
एक एक कविता को पढना मानो एक जिन्दगी को भीतर भीतर जीना सही कहाजाता हैं कविता अनायास जन्म नही लेती उसका जन्म होता हैं पीड़ा से दर्द से विरह से और प्रेम कविताये तो या तो पा लेने की ख़ुशी से जन्म लेती हैं या पा ना सकने की कसक से .लेकिन यह कविताये वही भावुक मन लिख सकता हैं जिसने प्रेम को जिया हो गहरे अंतस तक .प्रेम करना और प्रेम को जीना भिन्न भिन्न अवस्थाये हैं और इस पुस्तक का जैसा नाम हैं वैसे ही कविताये ..... सार्थक शीर्षक सार्थक और परिपक्व कविताये ...एक ऐसे पायदान पर खड़ी प्रेम कविताये जिसे हर कोई महसूस करना चाहेगा भाषा बहुत सरल स्वाभाविक सुन्दर बिम्बों के प्रयोग से कविताये जीवंत सी हो उठती हैं भावात्मक और विश्लेषणात्मक शैली कविताओ के मर्म को आसानी से परिलक्षित करती हैं .....
दीपक जी को उनके काव्य संग्रह के लिय हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाय
उनके नए काव्य संग्रह का इंतज़ार रहेगा
इस पुस्तक को खरीदने के लिय इस लिंक पर संपर्क करे
ek behtareen book, behtareen sameeksha ...!!
जवाब देंहटाएंmaine Deepak jee se hastaksharit prati li thi ..:)
शुक्रिया मुकेश जी वास्तव में किताब संग्रहणीय हैं
हटाएंjai ho :)
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंTHANK U SO MUCH ....... AABHAR MERE BLOG TAK AANE KA
हटाएंsameekhsha padhkar book padh lene ka mn ho raha hai
जवाब देंहटाएंThank u Kanupriyaa .aap Deepak ji kah kar book mangwa sakti hain
हटाएंशुक्रिया नीलिमा जी ...ऐसी गहराई से कविता पढने ...और समीक्षा के लिए .
जवाब देंहटाएंmera soubhagy ke mujhe itni achchi pustak padhne ko mili
हटाएंबहुत अच्छी समीक्षा है ..मुझे भी पढने की उत्कंठा बढ़ गयी है , यह मुझे कहाँ मिलेगी अब
जवाब देंहटाएंlink diya hain na Upasna .us par sampark kare
हटाएंदीपक जी को भी हार्दिक बधाई
जवाब देंहटाएंthnk u Upasna
हटाएंबहुत सुन्दर और सार्थक प्रस्तुति!
जवाब देंहटाएंसाझा करने के लिए आभार...!
shukriya sir
हटाएंshukrriya blog buletin
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