फरेब

मर रही थी तुम्हारे लिय , लड़ रही थी अपनों से 
और तुम !! इंतज़ार कर रहेथे 
उसी नुक्कड़ वाली दूकान पर 
मेरे आने का , पैसे और गहनों की पोटली के साथ 
उस बनिए की बेटी से आँख मटक्का करते हुए !!


छुपा लिए अपने आंसू गुस्से की आड़ देकर 
लो जहा चाहो करदो मेरी बर्बादी अपनी जात में
रो दी थी मैं बहन का कन्धा थाम कर
उस डाक्टर से शादी के लिय हाँ करते हुए !!!



हाँ कोई नही था मेरा तुम से पहले
तुम ही खुदा हो मेरे भगवान् हो
कितनी नफरत हुयी थी उस पल मुझको
उसकी बाहों में खुद को समर्पित करते हुए !!!!




अब आइना मेरा मुझसे सवाल करता हैं
फरेब कितना अब इंसान करता हैं
धोखेबाज कहकर सबको
इंसान खुद कितना धोखा अपने आप करता हैं ............नीलिमा

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर और संवेदनशील प्रस्तुति...

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    1. मेरी रचना आपको पसंद आई इसके लिय बहुत बहुत धन्यवाद

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल शुक्रवार (10-05-2013) के "मेरी विवशता" (चर्चा मंच-1240) पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. मेरी दो रचनाओ " फरेब" " लड़की जन्म का अधिकार " को शामिल करने का हार्दिक आधार ....ब

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