मेरे लफ्ज़ तल्ख़ हैं अज़ाब से

ऐसे क्यों होता हैं अक्सर
मैं कहना कुछ चाहती हूँ और
कह कुछ जाती हूँ
तुम बोलना कुछ चाहते हो और
चुप रह जाते हो अक्सर
ना जाने क्यों
मेरे लफ्ज़ तल्ख़ हैं
अज़ाब से
और लहजे तुम्हारे
पुरसुकून से
यह खामोशिया
यह बिना वज़ह का
अबोलापन
जो हमारे दरम्यान
फासले बढ़ा रहे हैं
जो हमारे दिलो में
घर बना रहे हैं
और हाशिये पर
खड़े हमारे वजूद
एक दुसरे से उलझते
आत्मसात करते हुए
एक दुसरे के होने को
न होते हुए भी करीब
सन्नाटे को चीरते हुए
कोशिश एक उजाले की
की करते हुए
मैं कितना भी जतन कर लू
कितनी भी वुज्जू / सजदे
होना तो वही हैं
जो तुमने सोचा हैं
मेरे उन लफ्जों से
आहत होकर Neelima Sharrma

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुंदर प्रस्तुति, बहुत शुभकामनाये

    जवाब देंहटाएं
  2. सुन्दर प्रस्तुति ....!!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (24-07-2013) को में” “चर्चा मंच-अंकः1316” (गौशाला में लीद) पर भी होगी!
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं
  3. जब दोनों ही कुछ का कुछ कर जाते हैं तो काहे की जिद्द ... होना वही होना चाहिये जो दोनों चाहें ...

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

लोकप्रिय पोस्ट