अपनी अपनी जिन्दगी


क्यों !!
आखिर क्यों पूछ लिया 
एक स्त्री का एकांत 
जिसका कभी अंत नही 
बचपन से बुढापे तक 

सिसकता बचपन
हुलसाती जवानी
कराहती साँझ
सिसकती उम्र की निशानी

हर पल स्व को मार
पर में खुश होती
पुरुष के अहम् को
अपने अस्तित्व पर ढोती


झूठे नकाब के पीछे
मुखोटे पहचानती
नियति के जहर को भी
अमृत मानती


अपने अपनों के
बीच परायी सी
साधनों की भरमार
तन मन की सताई सी


कितना सूना होता हैं
इनके मन का कोना
रिश्तो की भीड़
पर अपना कोई भी ना


यह जिन्दगी भी क्या हैं
एक नारी की
महज एक मृगतृष्णा

जहा हम कदम साए भी
अपनी माँ के जाए भी
जिए चले जाते हैं
अपनी अपनी जिन्दगी
अपनी .......
अपनी ............
जिन्दगी ................ नीलिमा शर्मा





आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

टिप्पणियाँ

  1. कितना सूना होता हैं
    इनके मन का कोना
    रिश्तो की भीड़
    पर अपना कोई भी ना....सच में कोई नहीं होता ,पहला कदम खुद को ही बढ़ाना पड़ता है ....बहुत सुन्दर रचना

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