व्यर्थ गया उसका बलिदान








व्यर्थ गया उसका बलिदान
आज भी लुट रही अस्मते 
आज भी हो रहे सामूहिक बलात्कार 
स्त्री कभी निर्जीव वस्तु थी 
जिसकी भावनाए शून्य थी 
आज स्त्री भोग हैं 
सामूहिक भोग

मोमबत्ती अब श्रधान्जली
का सामान नही
स्त्री /बच्चियों के देह
में प्रवेश करायी जाती हैं
एक पुरुष जो सचेत होता हैं
अपनी जवान बेटी को देख कर
दुसरे की बेटी पर लार टपकाता हैं


चाहे जितना शोर मचा लो
चाहे जितना आन्दोलन करलो
जब दिल से आवाज नही आएगी
पुरुष की पुरुषता हैवानियत ही ढायेगी

निर्भय तूने बलात्कार तो नही रोके
अपने बलिदान से
पर सचेत कर दिया हर स्त्री को
लड़ने को अपमान से

तुम जिस भी लोक में हो
वहां उस बलात्कारी पुरुष से कहना
तू फिर से जन्म ले इस धरती पर
और उसके यहाँ न हो बेटी या बहना


उसकी कलाई राखी को तरसे
उसकी गोद प्यार को
उसकी राते सूनी हो
उसकी सेज ओउरत को

ओउरत के नाम पर उसे
सिर्फ माँ नसीब हो
और रिश्ते से दुनिया में
वोह सबसे गरीब हो ................नीलिमा शर्मा निविया






















आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज मंगलवार (17-12-13) को मंगलवारीय चर्चा मंच --१४६४ --मीरा के प्रभु गिरधर नागर में "मयंक का कोना" पर भी है!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. निर्भय का बलिदान एक मायने में तो व्यर्थ ही गया, क्योंकि कानून बने या मुजरिम को फाँसी, दुसरा पुरुष चेतता नहीं. आज भी ऐसी घटनाएं कम नहीं हुई हैं. हाँ, समाज के कुछ लोग हैं जो इस आन्दोलन में सक्रिय हुए और बदलाव की उम्मीद को जिंदा रखे हुए हैं. कभी कभी लगता कि स्त्री जन्म सच में अपराध है.

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