मन के कोने
धुंधला रहे हैं किताबो में लिखे हर्फ
कांप रहे हाथ कटोरी को थामते हुए
लकीरे बना चुकी हैं अपना साम्राज्य
पेशानी और आँखों के इर्द गिर्द
यह उम्र दराज़ होना भी
कितना दर्द देता हैं
कभी कहा जाता हैं तुम आराम करो
दुनिया दारी बहुत कर ली
कभी कहा जाता हैं बहुत
जी लिया अपने मन का
अब हमें भी जीने दो
उम्र के इस मोड़ पर
जरुरत भी होती हैं
इस गैर जरुरी देह की
हर रिश्ते में एक पारदर्शी
दीवार दिखती हैं
अपनी ही जाई ओउलाद
परायी दिखती हैं
घर की देख रेख में
घर को बनाने में
एक उम्र गुजार देने वाले
यह बूढ़े लोग
मोहताज हो जाते हैं
सिर्फ एक कोने के लिय
अपने मन के कोने के लिय ..............................
आपका सबका स्वागत हैं .इंसान तभी कुछ सीख पता हैं जब वोह अपनी गलतिया सुधारता हैं मेरे लिखने मे जहा भी आपको गलती देखाई दे . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु
शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएं--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (20-09-2014) को "हम बेवफ़ा तो हरगिज न थे" (चर्चा मंच 1742) पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
sahi kaha aapne .....bahut marmsprshi
जवाब देंहटाएंकोमल भावो की अभिवयक्ति......
जवाब देंहटाएंये जो लोग मकां की पहरेदारी करते हैं
जवाब देंहटाएंअसल में मालिकाना हक़ की दावेदारी रखते हैं।
जिन्दगी की सच्चाई है जिसका सामना करना ही पड़ता है.... खुबसुरत रचना।
कभी मेरे ब्लॉग तक भी पधारिये मुझे अच्छा लगेगा पासबां-ए-जिन्दगी: हिन्दी
सुंदर भाव भरी रचना !
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंजितना सच उतना मार्मिक भी
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