एक जमाना था
माँ खाना बनती थी
पहली थाली भगवन की
दूसरी दादा दादी की लगाती थी
कुछ भी मीठा बनता था तो
पहला कोर दादी का होता था
पहला फल दादा के हाथ लगता था
हम बच्चे मुह बाये
करते थे इंतज़ार
कब दादी/दादा कह दे के
बेटा अब बस और नही चाहिए
और हम टूट पढ़े थाली पर
मिठाई और फल की कटी फांक पर
हम यु ही देखते देखते जवान हो गये
रसोई के बर्तन भी क्या से क्या हो गये
अब माँ चूल्हा नही फूक्ति उपलों वाला
अब माँ घंटो नही लगाती दाल पकाने में
आज भी रसोई माँ के ही हाथो में है
आज भी माँ के हाथ का स्वाद है उसमें
अब माँ दादी बन गये है और पापा दादा
माँ आज भी पहली थाली लगाती है .
तो वोह उनकी बहु अपने बेटे को दे आती है
स्कूल जाना है उसको भगवन तो घर पर ही रहेगा
पापा रिटायर हो चुके है ...बाद में भी खा लेंगे
भाई को ऑफिस जाना है
दूसरी थाली में जल्दी से खाना परोसती है
. मिठाई का हर भाग पहले बच्चो को जाता है
फिर उनके माता पिता को, फल भी सबसे पहले
सारा दिन मर-खप कर पैसे कमाने वाले बहु के पति को
माँ कभी अपने लिए थाली नही लगा पाई
पोते के थाली में बचे हुए खाने से ही तृप्त हो जाती है
पापा सबके जाने का इंतज़ार करते है
फिर थकी हुए माँ को सहमी सी आवाज़ में कहते है
चाय मिलेगी क्या?
लोग कहते है परिवर्तन आ गया है ..........
हाँ परिवर्तन आ ही गया है पहले माँ
भगवन और दादा/दादी की थाली लगाती थी
अब खुद दादी बनकर पहले बेटे बहु और पोते को खिलाती है
सबके जाने के बाद झूठे बर्तन समेत'ते हुए
बुदबुदाती है
क्युकी ज़माना बदल गया है .
और इस परिवर्तन के बोझ के सहते हुए
जिन्दगी को जिए चली जाती है .......................... नीलिमा शर्मा
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