विवेक हीन पल

कभी कभी बेवज़ह 
खलबली सी मची रहती हैं 
भीतर 
और 
गुस्सा 
बिना कारन 
अपना अधिकार 
जमा लेता हैं गहरे तक 
अनचाहे ही 
जुबान से फिसलते हैं 
वोह लफ्ज़
जो दिल में नही होते
और हम
उम्र भर धोते हैं
उन लफ्जों का
बरपाया कहर

यह कहर सिर्फ
अपनों पर ही क्यों बरसता हैं
दिल सबका नर्म लहजे को तरसता हैं
शब्द जहर बुझे से आग लगाते हैं
हम कहना कुछ चाहते हैं
परन्तु कह कुछ जाते हैं

कमबख्त उलझने
सोच को कुंठित कर
गाँठ लगा देती हैं
और सडांध मच जाती हैं भीतर
कुछ ऐसी बातो की
जो भीतर भीतर
चिंगारी सी
जलती हैं
और भभक उठती हैं
आग बेमौके
और
जल जाता हैं उस में
वजूद सबका
किसी के होने का
किसी के क्यों न होने का

आक्रोश विद्रोह से
तमतमाया जीव
तब भूल जाता हैं
उम्र भर को
कि उम्र भर महसूस होगा
यह एक उम्र के छोटे से पल का
विवेकहीन होना
बस अपना आप खोना

.......................................

नीलिमा शर्मा

टिप्पणियाँ

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (23-11-2013) "क्या लिखते रहते हो यूँ ही" “चर्चामंच : चर्चा अंक - 1438” पर होगी.
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है.
    सादर...!

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  2. सुन्दर अभिव्यक्ति .. विवेक हीन पल में ही आक्रोश और गुस्सा जन्म लेता है ..

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  3. विचारों का सुन्दर प्रवाह

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