चुन्नियों में लिपटा दर्द
समीक्षा
चुन्नियों में लिपटा दर्द
हरकीरत हीर
हरकीरत हीर नाम लेते ही एक मासूम शांत सा चेहरा आँखों के सामने आ जाता हैं । हिन्द युग्म से प्रकाशित "खामोश चीख़े" जब मैंने पढ़ा था तो उनकी नज़्मो की प्रशंसिका बन गयी थी ।
असम निवासी हरकीरत हीर जी का परिचय किन्ही शब्दो का मोहताज़ नही हैं ।
अयन प्रकाशन से उनकी पुस्तक "चुन्नियों में लिपटा दर्द" आने की सूचना मिली तो इस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा बलवती हो उठी । संयोग से हीर जी का सन्देश भी मिला कि पुस्तक मेले में पुस्तक का विमोचन होगा और मैं उस विमोचन में जाने के उतावली हो उठी । वहां जाकर मैंने उनकी तीन छोटी नज्मो का पाठ भी किया जो मेरे लिये एक गौरवपूर्ण क्षण था ।
पुस्तक हाथ में लेते ही एक अलग सा अहसास हुआ । शीर्षक अपने आप में बहुत सुन्दर हैं,।
स्त्रियां अपनी भावनाये अक्सर अपनी चुन्नी के पल्लू में बाँध कर रखती हैं और जब वक़्त मिलता हैं तो उन भावो को फरोल कर देखती हैं और
कभी एक ठंडी आह भर लेती हैं तो कभी पुलकित हो उठ'ती हैं । पुस्तक का कवर हार्ड बाउंड हैं और कवर तस्वीर
एक स्त्री के दर्द को बयां कर रही हैं और
याद दिलाती हैं क़ि "दर्द की महक
"और खामोश चीखो "के बाद आप पढ़िए" चुन्नियों में लिपटे दर्द" को । अमिया
कुँवर जी ने पुस्तक की भूमिका इतनी शानदार तरीके से लिखी हैं कि पुस्तक पढ़ने की
रूचि बढ़ जाती हैं। हरकीरत जी की नज़्मो को पर्त दर पर्त खोलती उनकी लेखनी को भी नमन
करती हूँ
प्रथम पृष्ठ पर सुलगते अक्षर ही पुस्तक की तासीर बयां करते हैं
"इन नज़्मो में। ...
शामिल एक एक अक्षर
जेहन में कई बरसो से
सुलग रहे थे "
दर्द को शब्द के साँचे
में नही ढाला जाता हैं । यह शब्द कई बार स्वयं ही आकार ले लेते हैं जब दू सरो की
पीड़ा अपनी लगने लगती हैं तभी हीर जी ने यह
पुस्तक समर्पित की हैं ...
"उन औरतो के नाम
जो कतरा कतरा रोज
जीती हैं
कतरा कतरा रोज़ मरती
हैं। ..."
संवेदनाओ की
पराकाष्ठा देखिये आप सब। । दूसरों की संवेदनाओ को महसूस करना और उससे गहरे
तलक जुड़ जाना सिर्फ हीर जी के लफ़्ज़ों का ही कमाल हो सकता हैं तभी तो लफ्ज़ कह उठें उनके ...
"अय औरत। ...
तुम्हारे दर्द के
किस्से
कागजों से उठ उठ कर
मेरी छाती में उत्तर
आये हैं (पेज ३१)
पहली ही नज़्म "चुन्नियों में लिपटा दर्द" जो
सामान्य नज़्मो कहीं अधिक लंबी हैं लेकिन जरा भी ठहरने का मौका नही देती और बहा ले
जाती हैं दर्द के दरिया में ,एक लड़की का होना क्या होता हैं क्या
होती हैं उसके भीतर की तन्हाई , सब कुछ हैं उसके पास दुनिया की नजर में .. फिर भी खालीपन सा भीतर.और उस लड़की का
मृत माँ के काल्पनिक अक्स से मानसिक वार्तालाप ..
“जब जब कई बार पूछे जाते हैं उससे सवाल
मन ही मन गुथम
गुत्था होते उसके जवाब
पर जुबान तक एक भी
नही आ पाता"
और माँ की सीखें।
“ज्यादा हंसने वाली
लड़कियों को
विवाह के बाद रोना
पड़ता हैं”
~~
गलती न होने पर भी
गलती मान लेने
का निर्देश देकर
विदा किया जता हैं
बेटियो को। ..”{२२}
एक आह सी भर जाती हैं हर उस स्त्री के मन में
जिसने ना जाने कितनी बार आँखें चुन्नी के पल्लू से चुपके से पोंछी होंगी माँ की कहीं इन बातो को याद करके। .. हर लड़की इन
शब्दो से खुद को गहरे तक जुड़ा महसूस करती होगी । और हर लड़की का दर्द गहरे तक फूट पड़ता होगा इन
पंक्तियों के साथ। ..
"रात जख्मो के टाँके
खोलती
दीवारे पागल करार
देती। ..
दर्द रस्सी ढूंढने
लगता। ..
टूटी चूड़ियां चुपचाप
निहारती रहती
अपनी कलाइयों का लहू
धीरे धीरे काम होते
गए शब्द, पसरती गयी चुप्पी। .." {पेज २४}
"चुप्पी जो कितनी
भयावह होती हैं
हीर जी कहती हैं
“यह कैसी चुप्पी हैं
जो बर्फ सी जैम गयी
हैं चीखो में
~~
और हर जवाब
बना हैं सवाल
और हर सवाल शीर्षासन
की मुद्रा में" {पेज २७}
हीर जी की सभी नज़्मे
दर्द से भरा आत्मालाप हैं खुद ही खुद संवाद करती हैं इस तरह दर्द से बावस्ता हैं
सभी।
"अय दर्द...
तुन यूँ ही सदा
नज़्म बन कर साथ साथ चलना
इन इंसानो का क्या
पता
कब तार तार कर दे
भावुक मन के हिस्से"
{पेज ४०}
लफ्ज़ लफ्ज़ नज़्मो को
पढ़ते हुए मन एक दर्द का दरिया पार करता जाता हैं हर भावुक मन और एकाकार होने लगता
हैं उस कलम से निकले लफ़्ज़ों में जिन्हें हीर जी ने कितना दर्द महसूस कर लिखा होगा
मेरी प्रिय नज़्मो
में से एक नज्म हैं "तवायफ की एक रात"
और पढ़ते हुए दर्द एक
सिसकी में बदल जाता हैं जहाँ तवायफ की कोई
जात नही होती सिर्फ भोग का सामान होती हैं और पुरुष अपने असल रूप में दिखता हैं
उसे। ..
हीरजी ने समाज के उस विद्रूप चेहरे को कितने सहज
लेकिन चुभते शब्दो में बयां किया हैं
"रात मुट्ठी में
राज़ लिए बैठी रही...
जो तुम मेरी देह की
समीक्षा करते वक़्त
एक एक कर खोलते रहे
थे“
~~
“बस ये।...
बिस्तर पर पड़ा जनेऊ
खिलखिला कर हंसता
रहा
जो तुमने मुझे छूने से पहले
उतार कर रख दिया था
सिरहाने
तले।"... {पेज ४२}
हिंसा की शिकार
महिलाओ के खामोश दर्द को भी हीर जी ने बखूबी पढ़ा चाहे मानसिक हिंसा हो या शारीरिक
। स्त्री उस टीस को भीतर खामोश रहकर दबाने
का असफल प्रयास करती हैं। कहना चाह कर कुछ नही कह पाती संस्कारो का बोझ उसके पाँव
की जंजीर बन विद्रोह नही करवाता और बेबसी में अपना वज़ूद तलाशता हैं और शब्द बह
उठते हैं कागज पर।...
" लौटना होप्ता हैं हर
रोज
फिर उसी जगह
जहाँ से छुप कर
भागती हैं वह
हर रोज़ लौट आती हैं
फिर
शर्मिन्दा
होकर" {पेज ६८ }
और दर्द घोलते हुए
शब्द अंदर तक जब असर करते तो।...
"कल रात तुम्हारे कहे
तल्खी भरे शब्दो से
आहत नहीं हुयी थी मेरी ख़ामोशी
हाँ।!
तुम उसकी नज़रो में
कुछ और नीचे
गिर गए थे।...{पेज ६९}
प्रेम स्त्री का
स्वभाव और गुण होता हैं और प्रेम की तलाश में किसी की तरफ देखना भी उसका एक गुनाह बन जाता हैं और हर तरफ एक हुजूम सा
नजर आता हैं हर तरफ उसकी देह को खरोंचते
शब्द सुनाई देते है और गुनाह हो
जाता प्रेम
ना उसका मन पर
अधिकार होता ना ही देह पर नारे लगाए जाते हैं उसकी स्वतंत्रता के
“न जाने कौन थी वो
पर वो आज़ादी हरगिज़
नही थी"
हीर जी के शब्द जब
आहत हुए और शब्दो की अंत्येष्टि पर उनको उनके गर्भ में भी कविता ही नजर आती {पेज ८०} कहीं देखा पढ़ा ऐसा बिम्ब ??
प्रसव पीड़ा से गुज़रते शब्द जब किसी मुकम्मल नज़्म
को जन्म देते तो कुछ यूँ उभरता अकस
बिस्तर पे
अधमोई सी नज़्म
रात भर अपने ही
हाथो से
कत्ल करती रही अपनी
देह
गंदले अंगो की
जिल्लत
घूँट घूँट पीती रही
रात भर
जाने क्यों कुछ
रिश्ते
कानूनन जायज़ होकर भी
नाजायज़ होते हैं।...
जिनम मोहब्बत नही
होती
~
रात जिस्म की
रस्सियां
तोड़ने लगी हैं।...
आज नज़्म रात भर
रोएगी
टुकड़े टुकड़े सी
साफहो पर।... {८७}
~~ रात ने चाँद की कलाई
पकड़ी
और करवट बदल कर सो गयी
सुबह कुछ नज़्मो
के टुकड़े
हाथो में लिये
वक़्त खिलखिला कर हंसता रहा
हर नज़्म का पाठ एक
हुक सी भर जाता हैं
कोख का क़त्ल
हो या तवायफ या मैली हुयी चेनाब
जैसी नज़्में स्त्री के दर्द को मुकम्मल हैं
खूबसूरत बिम्बो का
प्रयोग नज्मो को अनूठी शैली में जब पिरोता हैं तो प्रेम मोहब्बत की नज़्म जन्म लेती
हैं । लफ्ज़ लफ्ज़ में एक सम्मोहकता हैं एक
पल को पढ़कर भूल जाने वाले अक्षर नही यह अपितु मन के अंदरूनी कोने तक बैठ जाने वाले
भाव हैं जिसे बरसो बरस जिया जाएगा भीतर
अपना मान कर | नज्म में शामिल बिम्ब बहुत खूबसूरत हैं कही भी
उन्हें जबरन शामिल किया हुआ नही लिया हुआ लगता ।
"एक खूबसूरत
अहसास" शीर्षक तले लिखी गयी नज़्म प्रेम के कोमल अहसास को जीवंत कर देती हैं
"तुमने ही तो कहा था
मुहब्बत जिंदगी होती
हैं
~
हम इश्क़ की दरगाह
से सारे फूल चुन लाते
और सारी रात उन फूलो से मोहब्बत की नज़्मे लिखते
~
आज भी छत की वो
मुंडेर मुस्कुराने लगती हैं
जहाँ से होकर मैं
तेरी खिड़की जाया करती थी
और वो सीढियो की ओट
से लगा खम्बा
जहाँ पहली बार तुमने मुझे छुआ था
वो सांसो का उठना वो
गिरना
सच्च! कितना हसीं था
वो
इश्क़ के दरिया में
मुहब्बत की नाव उतरना
और रफ्ता रफ्ता
डूबते जाना।... डूबते जाना। ...{५३}
कितना कोमल अहसास
दर्द की देवी की कलम से। ... कलम से सिर्फ
दर्द बहता हो ऐसा नही प्रेम भी बाख़ूबी पुलकित करता हैं मन के अंदरूनी कोने को
चाहे "इश्क़ की ईंट
"{पेज ८५} नज़्म हो या "मुहब्बत {पेज ९६} प्रेम का इज़हार या हक़ माँगती स्त्री कहीं कमजोर नही, वो उदासी में भी टूटती नही हैं और मोहब्बत में
सिमटती भी नही। ... जीना जानती हैं हर हाल में क्योंकि वो पर्याय हैं प्रेम
का"। इश्क मोह्बात रिश्ते अकेलापन तन्हाई कोई भाव ऐसा नही जिसपर हीर जी के मन
से भाव न उभरे हो और उन्हें नज्म की सूरत न मिली हो ...
इमरोज़ जी का उनको अमृता कहना किसी मायने में
अतिश्योक्ति नही । और इमरोज़ के अपने को दिए हीर नाम को सार्थक करते उनके शब्द अपनी
अनूठी भाषा शैली की वजह से अंतर्मन को पुलकित करते हैं इस पुस्तक की ६० नज़्मो की समीक्षा करना मेरी
सामर्थ्य के बाहर हैं । प्रेम की पराकाष्ठा को महसूस करना फिर माकूल लफ्ज़ में उन लफ़्ज़ों की माला बनाकर लिखना हर किसी के वश में नही हैं। खुदा कुछ ही लोगो को
हुनर देता हैंऔर हीर जी की तरह उनको महसूस करना उस पर और भी कठिन ।
किस किस नज्म की यहाँ तारीफ़ करू ...
ख्याल "{पेज ९८}में हीर के लफ्ज़ कहते “आज जी चाहता हैं
मुहब्बत की कोई नज़्म लिख दूँ"
"खामोश दीवारे"{१०१} इंतज़ार को बयां करती नज़्म हैं तो" हाँ मैं
तुम्हे चाहूंगी अपने तरीके से "{१०३।} प्रेम को अपनी शर्तो
पर जीने की जिद करती दृढ निश्चय करती स्त्री बन पड़ी हैं और अरसे तक याद रहेगी
"कोख का क़त्ल"
समसामयिक मुद्दा उठाती हैं नारी सुरक्षा का चाहे वो गर्भ में हो या सड़क पर ।
कन्या भ्रूण ह्त्या पर
इससे बेहतर क्षणिकाएं रूपी मुकम्मल नज़्में मैंने नहीं पढ़ी ।
बाबुल "{पेज ११६} मानो विदा होती हर बेटी की चुन्नी
बंधी शिक्षा का परिणाम हैं और दर्द उभरता हैं उन टूटे अधूरे सपनो का जो उस दहलीज़ पर अंतिम सांसे लेता रहा जिसे
बाबुल का घर कहा जाता हैं।...
हीर जी की नायिका
विद्रोहिणी नही हैं लेकिन एकदम लाचार भी नही हैं उसे मौन रहकर दर्द को शब्द देना
आता हैं |
हाँ।... सिर्फ उम्र
के साथ साथ इनके शब्द बदलते रहते हैं।... {८८}
इमरोज़ जी के आग्रह पर लिखी नज़्म एक प्रेम स्वीकृति हैं
आत्मिक प्रेम की ।
अमृता और हीर जी
मानो प्रतिबिम्ब हैं अमृता में हीर नजर आती हैं और हीर में अमृता ।
"हरकीरत हीर" एक ऐसा नाम जो नज्मो का पर्याय सा लगता हैं आज
की इस अमृता की किताब मेरी प्रिय अमृता प्रीतम की किताबो के समकक्ष हैं और उनकी
पुस्तक केमिलते ही यह भावना हृदय में थी ।
हरकीरत जी के शब्द मेरे मन की आवाज़ सी लगते हैं कभी कभी |
कही कही तो लगता हैं
हीर जी नज़्म लिखती नही हैं उनको जीती हैं उनके रोजाना की बोलचाल के शब्द भी एक
नज्म बन जाते होंगे| , मन को झकझोरती कही
तो कही कोमल भाव से मुस्कुराती , कही आक्रोशदिखाती तो कही विधि के
विधान के आगे तो कही मजबूर दोशीजा सी हीर
के नज्मो की यह पुस्तक एक अनमोल तोहफा मेरे संग्रह में |
एक पाठक हूँ मैं कोई प्रोफेशनल समीक्षक नही
इसलिय एक समीक्षा करने की हिम्मत नही हो रही हैं | उस हीर के चुन्नियों में लिपटे दर्द को को कैसे खोल कर अपने शब्दों की माला पहना दूँ जिनकी गूंज दूर दूर तक गूँज रही हैं और निर्वात में हरेक
उन लफ्जों से खुद को रिलेट कर रहा हैं | जिनका परिचय ही पन्नो में नही समा सकता उनके लिखे लफ्जों को कैसे मैं चंद
लफ्जों में बयां कर दूँ | मेरे लिये असंभव हैं
इस पुस्तक को आप हीर
जी से या अयन प्रकाशन से मँगवा सकते हैं । पुस्तक की कीमत २५० रुपये कोई भी
मायने नही रखती अगर आप सचमुच नज़्म के गहरे भाव पढ़ने के उसके बाद उनको भीतर जीने के
भी \ सहेजने के भी तलबगार हैं |
हीर जी के ही लफ़्ज़ों
में:
"अय जिंदगी!
तेरी किताब अभी तक
पढ़ नही पायी हूँ मैं
कितने ही पन्ने
स्याह पड़े हैं
जिन्हें पढ़ते पढ़ते
जुबां कफ़न हुयी जा
रही हैं
ओरत की उदासियो का
रहस्य बुत बना बैठा हैं
कितने ही मरे हुए
अक्षर
दर्द की कोख से फिर
फिर
लेते हैं जन्म
अय खुदा
मेरी नजर को हरकत दे
कि जिंदगी की इस
किताब को पढ़
कटरा कटरा उतार सकूँ
इन सफहों पर
दर्द की जलती बुझती
आग के
आँसुओ का दे सकूँ
मुआवज़ा
ओरत के कब्र होने का
मुआवज़ा
उसकी देह की हर एक
मरती रात मुआवज़ा।...{४४}
बिरहा का सुलतान अगर शिवकुमार बटालवी को कहा गया हैं तो
बिरहा (दर्द) की साम्राज्ञी हरकीरत हीर ही हैं
उनके सृजन संसार / स्वास्थ्य और लंबी उम्र के
लिए शुभकामनाये / मंगल कामनाये
अंत में अपना
लिखा एक शेर उनको समर्पित करती हूँ
"सूना होगा तुमने
दर्द की भी एक हद होती हैं
मिलो हमसे, हम अक्सर उसके पार जाते हैं"
नीलिमा शर्मा
सी 2 / 133
जनकपुरी,
नई दिल्ली, 58
फोन: 9411547430
आपका सबका स्वागत हैं . नि;संकोच आलोचना कीजिये .आपकी सराहना और आलोचना का खुले दिल से स्वागत ....शुभम अस्तु
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