बहुत आत्म मुग्धा हो रही हूँ
मेरे हर प्रेम निवेदन के
आक्रोश के
संतोष के
विक्षोभ के
केंद्र में तुम रहते हो
आक्रोश के
संतोष के
विक्षोभ के
केंद्र में तुम रहते हो
एक बिंदु की तरह तुम
स्थिर रहते हो अपने स्थान पर
और मैं भिन्न भिन्न कोणों से
तुम पर व्यक्त करती हूँ अपने सारे भाव
स्थिर रहते हो अपने स्थान पर
और मैं भिन्न भिन्न कोणों से
तुम पर व्यक्त करती हूँ अपने सारे भाव
और तुम अटल से अडिग रहते हो
अपनी परिधि पर
मैं कभी त्रिभुज मैं कभी वर्गाकार सी
घेरे रखती हूँ तुम्हे अपने सवालो से
अपनी परिधि पर
मैं कभी त्रिभुज मैं कभी वर्गाकार सी
घेरे रखती हूँ तुम्हे अपने सवालो से
तुम निर्मय भी हो मेरे जीवन के रेखागणित की
तो प्रमेय भी
तो प्रमेय भी
मेरा हर समय तुम्हे कटघरे मैं खड़े कर देना
तुमको आत्मसात होता होगा
परन्तु हर प्रीत /आक्रोश समर के पश्चात्
मुझे आत्म ग्लानी होती हैं
अपने शब्दों पर
मैं शर्मिंदा हो जाती हूँ
तुम्हारी धीरता से
आडिगता से
तुमको आत्मसात होता होगा
परन्तु हर प्रीत /आक्रोश समर के पश्चात्
मुझे आत्म ग्लानी होती हैं
अपने शब्दों पर
मैं शर्मिंदा हो जाती हूँ
तुम्हारी धीरता से
आडिगता से
सुनो न
कभी मुझे भी केंद्र बिंदु मैं रखो
अपने सवालों के
आरोपों-प्रत्यारोपो के
केंद्र में
अपने सवालों के
आरोपों-प्रत्यारोपो के
केंद्र में
और घुमाओ मुझे भी इस परिधि पर
मुझे भी आत्म विवे चना करने दो
बहुत आत्म मुग्धा हो रही हूँ मैं .............................
बहुत आत्म मुग्धा हो रही हूँ मैं .............................
अच्छी रचना.
जवाब देंहटाएंthnks M.M.S ji
हटाएंnice and so good "ek sthirpragya kya vartmar main hain ?
जवाब देंहटाएंbilkul hain na har insaan aatm vivechana karta hain .bas lafzo main nhi kah pata har koi
हटाएंbhawon ko badi hi khoobsurati se ukera hai aapne!
जवाब देंहटाएंthnk u parul ji
हटाएंबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति....
जवाब देंहटाएंshukriya kailash ji
हटाएंबहुत उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएं@मेरी बेटी शाम्भवी का कविता-पाठ
thank u sir
हटाएंसुन्दर रचना | बधाई
जवाब देंहटाएंshukriyaa
हटाएंआपकी यह रचना निर्झर टाइम्स (http://nirjhar-times.blogspot.in) पर लिंक की गयी है। कृपया इसे देखें और अपने सुझाव दें।
जवाब देंहटाएंshukriyaa
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