आज मैं चुप हूँ

आज मैं चुप हूँ 







  मैं चुप हूँ बाहर से 
पर भीतर 
ना जाने कितने 
वार्तालाप 
चलते हैं 

और मेरी रूह 
जख्मो से भरी 
रिसती हैं 
देर तलक 

ओ ढ लो मुझे 
तुम बनाकर 
और मैं लिपट जाऊ 
बुक्कल मार कर 

तेरा होना भी हैं 
पर तेरा कहलाना नही हैं 
भरम रखना हैं बस 
तेरे मेरे होने का 
मेरे तेरे होने का 

शब्द चुप हैं शोर मचाते हुए 
और भीतर कोलाहल हैं जज्बातों का 

और मैं गुम हूँ 
सोचते सोचते 
तेरे गालो की डिंपल याद करके 

और तुम .....

तेरी तुम जानो 
मेरी मैं ................. नीलिमा

टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज सोमवार (21-10-2013)
    पिया से गुज़ारिश :चर्चामंच 1405 में "मयंक का कोना"
    पर भी होगी!
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही सुन्दर प्रस्तुती आदरेया।

    जवाब देंहटाएं
  3. इस पोस्ट की चर्चा आज सोमवार, दिनांक : 21/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -31पर.
    आप भी पधारें, सादर ....नीरज पाल।

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  4. बहुत ही गहन भाव और बहुत ही बेहतरीन ....

    जवाब देंहटाएं
  5. उसे तोङना आता था उसने तोङ दिया,
    उसे क्या पता दिल किसे कहते है.............
    “अजेय-असीम{Unlimited Potential}”

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  6. nice lines.
    your most welcome to my blog also.
    http://iwillrocknow.blogspot.in/

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